Thursday, February 09, 2006

सच का हाथ

ये आवाजें
ये खिंचे हुए
उग्र चेहरे
चिल्लाते

मनुष्यता खो चुकी
अपनी ढिबरी मदमस्त अंधकार में
बस टटोलती एक क्रूर धरातल को,
कि एक हाथ बढ़ा कहीं से
जैसे मेरी ओर
आतंक से भीगे पहर में
कविता का स्पर्श,
मैं जागा दुस्वप्न से
आँखें मलता
पर मिटता नहीं कुछ जो देखा



7.2.06 © मोहन राणा

The Translator : Nothing is Translated in Love and War

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