Thursday, April 27, 2006

गिरगिट

हम रुक कर चौंकते हैं जैसे पहली बार
देखते एक दूसरे को
जानते हुए भी कि पहचान पुरानी है,
करते इशारा एक दिशा को
वह हरा कैसा है क्या रंग वसंत का है!
वह गर्मियों का भी नहीं लगता,
आइये ना वहाँ साथ सुनने कुछ कविताएं
पर उन वनों में विलुप्त है सन्नाटा
अनुपस्थित है चिड़ियाँ
कातर आवाजे वहाँ ...
कैसे मैं जाउँ वहाँ कविताएँ सुनने, हम
रुकते हैं पलक झपकाते
झेंपते
जैसे छुपा न पाते झूठ को कहीं टटोलते
कोई जगह
बदलते कोई रंग
कोई चेहरा




27 अप्रैल 2006 ©

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