Thursday, August 26, 2010

पूर्वपीठिका

मैंने सुने खोये हुए पदचाप उस किनारे में दबे
बनाते हुए पुल, अविराम सांसों के साथ जुटा हूँ पूरा करने में.
आने को है एक मौसम, बह जाएगा उसके सैलाब में रेत का पुल कभी
उससे पहले पार कर लूँ समय की नदी को बिना नाव के,
सोते हुए क्या मुझे याद रहेगा यह सपना
सुबह की नींद में जाग कर भी

©26/8/10 मोहन राणा

कविता अपना जनम ख़ुद तय करती है / The poem Chooses Its Own Birth

Year ago I wrote an essay 'कविता अपना जनम ख़ुद तय करती है ' (The poem Chooses Its Own Birth) for an anthology of essays  "Liv...