Sunday, January 30, 2011

नमस्ते

कहाँ गुम हो या शायद मैं ही खोया हूँ
शहर के किस कोने में कहाँ
दो पैरों बराबर जमीन पर
वो भी अपनी नहीं है


दूरियाँ नहीं बिफरा मन भी नहीं
तुम्हें याद करने का कोई कारण नहीं
भूलने का एक बहाना है खराब मौसम जो
सिरदर्द की तरह
समय को खा जाता है खाये जा रहा है
फिर भी भूखा है जैसे आज भी,

या मैं खुद से पूछ रहा हूँ
समय को कच्चा खाते
मैं भूखा क्यों हूँ सिरदर्द की तरह
सोच सोचकर
लोहे के चने चबा रहा हूँ

अब मैं भूल भी गया
मैंने तुमसे पूछा क्या था
अपने ही सवाल का जवाब देते हुए,
दो पैरों बराबर जमीन पर
वो भी अपनी नहीं है


© मोहन राणा
30.1.2011

What I Was Not

 Mohan Rana's poems weave a rich tapestry of memory and nostalgia, a journeying through present living. Explore the lyrical beauty of th...