Monday, January 03, 2011

खड़े होने की जगह

कुछ दृश्य मामूली से होते हैं पर वे दृश्यों से पटे मानस पटल के कोलाहल में अपने लिये खड़े होने की जगह बना ही लेते हैं.

कुछ समय पहले एक दृश्य मैंने दिसंबर की सर्द के शाम हौजखास में एक अँधेरी सड़क पर देखा, गीला कुंहासा पास के जंगल से निकल सब ओर अँधेरे में फैल रहा था.
केवल गाड़ियों के हैडलैम्प या किसी भागते ऑटो की मुंदी बत्ती में पता चलता था कि मैं सड़क पर हूँ , और पाँव चल रहे हैं. फुटपाथ जैसी कोई चीज़ नहीं थी बस घने अँधेरे के किनारे थे दोनों ओर सड़क के बीच चलता मैं जल्दी जल्दी वहाँ से आगे बढ़ रहा .. तभी एक मंद रोशनी में मैंने कुछ लोगों के एक समूह को कुछ दूर से एक घेरा लगाए देखा, मुझे अचरज हुआ कि इस अँधेरे में वहाँ वे क्यों खड़े हैं!
पास आया तो देखा लैम्प की रोशनी के इर्दगिर्द वे लोग एक खोमचे को घेरे खड़े थे, बिल्कुल स्थिर चुपचाप कुछ खाते हुए और उनके परे एक आदमी हाथ चला रहा था शायद रोटियाँ बेल रहा था और ढेकची से कुछ करछी से निकल कर किसी प्लेट पर डाल देता.. शाम का भोजन चल रहा था.

कविता अपना जनम ख़ुद तय करती है / The poem Chooses Its Own Birth

Year ago I wrote an essay 'कविता अपना जनम ख़ुद तय करती है ' (The poem Chooses Its Own Birth) for an anthology of essays  "Liv...