Friday, September 30, 2005
बारिश
पानी की बूँदें ठहर गई गिरते हुए
सीढ़ियों से उतरते मैं रुक गया जैसे
पहली बार मैंने देखा समुंदर को उन बूँदों में,
कोई सीत्कार पतझर की खामोशी में.
©1.10.05
"The poet's condition"
If this light were even whiter
You and I would be invisible
We'd live our invisible pain
And not know
The absence of joy
We'd marvel the invisibility
In which shadows disappear
Forms vanish
Falling we'd imagine flying without a sky
Only a sound
Which reaches the remaining memory
Where knowledge is not a necessity
The poet's condition
Poetrys fate
This
Together
A breath
© 2005
Translation of Mohan Rana's original Hindi poem "kavi ka haal" by Lucy Rosenstein
Many thanks to Lucy ~
For reading more translations of Mohan Rana's poems published few years ago in "Modern Poetry in translation "
please visit this web page.
You and I would be invisible
We'd live our invisible pain
And not know
The absence of joy
We'd marvel the invisibility
In which shadows disappear
Forms vanish
Falling we'd imagine flying without a sky
Only a sound
Which reaches the remaining memory
Where knowledge is not a necessity
The poet's condition
Poetrys fate
This
Together
A breath
© 2005
Translation of Mohan Rana's original Hindi poem "kavi ka haal" by Lucy Rosenstein
Many thanks to Lucy ~
For reading more translations of Mohan Rana's poems published few years ago in "Modern Poetry in translation "
please visit this web page.
Thursday, September 29, 2005
तु्म्हारा नाम
हाँ बारिश सब जगह थी कल, आज कुछ धूप उदासीन, कतराए बादलों में
और अब पतझर धीरे धीरे जैसे कुछ लिखता समय की हथेली पर,
और अब पतझर धीरे धीरे जैसे कुछ लिखता समय की हथेली पर,
Tuesday, September 27, 2005
पहचान
मैं हवा के बारे में सोच रहा था, उसकी कोई सीमा नहीं है ना ही कोई देश
ना उसकी अपनी जाति, भाषा
ना कोई अस्मिता का सवाल
कोई घर भी नहीं उसका वह हमेशा बेघर
दुनिया के विस्तार में
रोशनी और परछाईयों के खेल में,
जीवन और मृत्यु उसके लिए एक समान
एक सांस
किसी से भी पूछो - क्या है यह
और हर भाषा में एक ही जवाब है - हवा
अपने हाथों को कानों से लगा
मैं सुनता हूँ उसे कुछ बोलते
तुम्हारी आवाज में
©मोहन राणा mohan rana 27/9/05
ना उसकी अपनी जाति, भाषा
ना कोई अस्मिता का सवाल
कोई घर भी नहीं उसका वह हमेशा बेघर
दुनिया के विस्तार में
रोशनी और परछाईयों के खेल में,
जीवन और मृत्यु उसके लिए एक समान
एक सांस
किसी से भी पूछो - क्या है यह
और हर भाषा में एक ही जवाब है - हवा
अपने हाथों को कानों से लगा
मैं सुनता हूँ उसे कुछ बोलते
तुम्हारी आवाज में
©मोहन राणा mohan rana 27/9/05
Friday, September 23, 2005
Tuesday, September 20, 2005
Sunday, September 11, 2005
कौन
बदलते हुए जीवन को देखते उसे जीते हुए
मैं ठीक करता टूटी हुई चीजों को, उठा कर सीधा करता
गिरी हुई को
कतरता पौछंता झाड़ता बुहारता,
जीते हुए बदलते जीवन को देखता
छूटता गिरता टूटता गर्द होता,
और आते हुए लोग मेरे बीतते हुए दृश्य को
कहते सामान्य
सब कुछ नया साफ सुथरा
जैसे मैं देखता उसे इस पल
और बदलता तभी
छूटता मेरे हाथों से
जैसे वह कभी ना था वहाँ
कौन रुक कर पूछता मैं
अब तब नहीं जाना मैंने तुम्हें
11.9.05 ©
Wednesday, September 07, 2005
पहचान पत्र
Sunday, September 04, 2005
मचान
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