Sunday, September 11, 2005

कौन


बदलते हुए जीवन को देखते उसे जीते हुए
मैं ठीक करता टूटी हुई चीजों को, उठा कर सीधा करता
गिरी हुई को
कतरता पौछंता झाड़ता बुहारता,
जीते हुए बदलते जीवन को देखता
छूटता गिरता टूटता गर्द होता,
और आते हुए लोग मेरे बीतते हुए दृश्य को
कहते सामान्य
सब कुछ नया साफ सुथरा
जैसे मैं देखता उसे इस पल
और बदलता तभी
छूटता मेरे हाथों से
जैसे वह कभी ना था वहाँ

कौन रुक कर पूछता मैं
अब तब नहीं जाना मैंने तुम्हें

11.9.05 ©

What I Was Not

 Mohan Rana's poems weave a rich tapestry of memory and nostalgia, a journeying through present living. Explore the lyrical beauty of th...