Sunday, February 08, 2009

हिममानव



ताकती उनकी खुली आंखें सफेद आकाश को
चलते चलते वे जैसे रूक गए पार्क की ढलान पर
संभवी मुद्रा में
पेडो़ं के बीच

ठिठका
उन्हें देख
कहीं वे
लोग
जनमे हो जैसे इस बार जल चेतना में
मुझ से डर कर तो नहीं बन गए बर्फानी बुत
वे सोचते होंगे
कैमरे के लेंस से
अपलक उन्हें देखता है कोई हिममानव?

भय अज्ञान है
सच्चाई भय
और अज्ञान सच्चाई है


© 8/2/2009

Thursday, January 15, 2009

सफेद सूरज


कहाँ हैं इसके रथ में जुते सात घोड़े
रात भी यहीं सुबह भी यहीं दोपहर और शाम भी यहीं!
बंद कर दूँ खिड़की
क्या करूँ इस दृश्य का
हर दिशा में,
मैं ही हूँ

Thursday, January 01, 2009

नववर्ष 2009 की हार्दिक शुभकामनाएँ



31 दिसंबर की सुबह जमे हुए पाले में प्रकट हुई, बाहर कुहासे में ठिठुरता हुआ सन्नाटा. बगीचे में एक मैग्पाइ (मुटरी) उड़कर शंकु वृक्ष के शिखर पर बैठ गई. हमेशा सतर्क रहने वाली चिड़िया, चुपके से उसकी दो तीन तस्वीरें ले ली. इसे चालाक और चोर चिड़िया लोग कहते हैं क्योंकि इसके घोंसले में चमकीली चीजें पाई जाती हैं. पर चीन में मैग्पाइ को शुभ माना जाता है.

Monday, December 29, 2008

मंजीत बावा


सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया को पढ़ता हूँ खबरों की सूची में एक खबर पर नजर पड़ती है 'मंजीत बावा नहीं रहे', वे पिछले तीन साल से कोमा में थे. मुझे 1986-90 के दौरान उनसे हुई मुलाकातें ध्यान आने लगती हैं रवीन्द्रभवन, गढ़ी स्टूडियो, धूमीमल गैलरी,त्रिवेणी या कहीं रास्ते में. स्मृतियों के डिब्बे में बोलती पड़ती हैं आवाजें, चल पड़ती हैं मानसिक चित्रपट की खिड़कियों में कुछ रीलें... और बाहर एक रंगहीन ठंडा आकाश, उदास धूप की कुछ कतरनें

Sunday, December 07, 2008

शोकगीत

















दम साधे सावधान
कि सांस बेचैन है फेफड़ों में,
आतंक के गलियारों में विलुप्त हैं शोकगीत इस बार,
चुप क्यों हैं शोकगीतों के कवि

उनका दुख आक्रोश बेचारगी
अपनी अनुपस्थिति का कोई कारण बूझते
कहाँ हैं वे कवि?

अकेले नहीं पूरी हो सकती यह कविता
चीखों के बियाबान में,

सबसे पहले भूल जाते हैं
आइने के सामने हम अपने को ही



©मोहन राणा

Monday, September 15, 2008

गिरने की आवाज

कविता कहती है पेड़ों से छनती हुई रास्ते पर गिरती रोशनी को छुओ

Sunday, September 07, 2008

पानी का रंग


यहाँ तो बारिश होती रही लगातार कई दिनों से
जैसे वह धो रही हो हमारे दागों को जो छूटते ही नहीं
बस बदरंग होते जा रहे हैं कमीज पर
जिसे पहनते हुए कई मौसम गुजर चुके
जिनकी स्मृतियाँ भी मिट चुकी हैं दीवारों से

कि ना यह गरमी का मौसम
ना पतझर का ना ही यह सर्दियों का कोई दिन
कभी मैं अपने को ही पहचान कर भूल जाता हूँ,

शायद कोई रंग ही ना बचे किसी सदी में इतनी बारिश के बाद
यह कमीज तब पानी के रंग की होगी !

© मोहन राणा 8.9.2008

Monday, August 18, 2008

त्यागपत्र


जनरल साब जाते हुए चाय तो पीते जाँय
बहुत हो गया भाषण
बेचारा बीबीसी का दुभाषिया भी हकलाने लगा,
बाकी जूठन कल के अखबार के लिए














© मोहन राणा

Thursday, July 17, 2008

वो उड़ चला बादल बन




















यह किस तरह की बारिश
जो रोज होती है अलग अलग समय
कौन पौंछता होगा उसके चेहरे को,

टकराते टूटते संभालते अपने आप
को
मिटाते किसी आत्मलाप को किनारों से
पुरातीत सीत्कार के साथ
पर फिर एक पल झिझक
जैसे मुड़कर कोई देखता कुछ याद कर


जो समुंदर कहीं नहीं पहुँच पाया वो उड़ चला बादल बन,
अक्सर ऐसा ही होता है
पर कुछ होते हैं जो
शायद ... बन जाते हैं आकाश


17.7.08
©मोहन राणा

Saturday, July 12, 2008

अपील

अभी यह पहला मसौदा है,

यह केवल ईश्वर के लिए है
कृपया पाठक बेचैन ना हों
पर कुर्सी से लगी पेटी अभी उतारें ना
जब तक खत्म ना हो यह यात्रा
इस जहाज के पंख कभी भी गिर सकते हैं अपने आप


ईश्वर
हिन्दी का लेखक कभी बूढ़ा ना हो अस्वस्थ ना हो
उसे माँग ना करनी पड़े इलाज के पैसों के लिए
रहने के लिए एक घर के लिए
बच्चों की पढ़ाई के लिए
उसके जीवन में कोई जरूरतें ही ना हों

पर वह दिगंबर नहीं हो सकता
ना वह बादलों में रह सकता है
उसे एक खिड़की तो चाहिए अपने घरोंदे में
और एक चोर दरवाजा भी
जो झूठ की दुनिया में खुलता हो


वह गंगा में नहीं छलांग लगा सकता
वो पत्थर हो जाएगी

शर्म से वह अभिशप्त तालाब में नहीं डूब सकता
नहीं है उसके पास उत्तर यक्ष प्रश्नों के

उसे चुल्लू भर पानी चाहिए
गरमी इतनी कि पसीना भी सूख जाता है,
लगातार बारिश के बावजूद
आकाश प्यासा है
धरती के पैरों में फटी बिवाई -

उसे अँधेरी कोई जगह चाहिए जहाँ
अंधेरा भी अदृश्य हो जाय

सभी दरवाजों को खटखटाने के बाद
जो खुलते एक ओर बंद होते दूसरी ओर,
यह अपील ईश्वर के लिए है
विवश होकर
आपका
हिन्दी लेखक

Tuesday, June 24, 2008

फिर कब आओगे

मैं लौटता हूँ हर शाम फिर इस कुर्सी पर
भरने उड़ान अपने अंतरिक्ष की ओर
वहाँ मैं खाली कर सकता हूँ पर्चियों से भरे झोले को
वहाँ सब कुछ उपस्थित है
नया पुराना एक साथ
वहाँ वर्तमान चाकू की धार नहीं
अंतहीन विस्तार है

कि तभी कोई आवाज
हर सुबह
फिर कब आओगे


© मोहन राणा

The Translator : Nothing is Translated in Love and War

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