सच और भय की अटकलें लगाते एक तितर बितर समय के टुकड़ों को बीनता विस्मृति के झोले में
और वह बेमन देता जबाव अपने काज में लगा जैसे उन सवालों का कोई मतलब ना हो जैसे अतीत अब वर्तमान ना हो बीतते हुए भविष्य को रोकना संभव ना हो
जैसे यह जानकर भी नहीं जान पाउँगा मैं सच को वह समझने वाली बाती नहीं कि समझा सके कोई सच, आधे उत्तरों की बैसाखी के सहारे चलता इस उम्मीद में कि आगे कोई मोड़ ना हो कि कहीं फिर से ना पूछना पड़े किधर जाता है यह रास्ता,
समय के एक टुकड़े को मुठ्ठी में बंदकर यही जान पाता कि सबकुछ बस यह पल हमेशा अनुपस्थित
पिछले रविवार को शहर के बाहर एक नहर के किनारे टहलने चले गए, चमकती धूप में हरियाली उनींदी , अपने ही पद्चाप अजनबी ध्वनित होने लगे कुछ देर चलने के बाद कभी कोई बगुला कुछ सोच कर उड़ पड़ता छोड़कर बेचैनी पानी की हरित सतह पर नीले रंग के ड्रैगनफ्लाई मंडराते यहाँ वहाँ बैठते...उँची घास पर रास्ते का कोई छोर नहीं दिखता, गंतव्य क्या और कहाँ है यह भी नहीं मालूम बस हम चलते चले गए- सुंदर और शांत, जहाँ पानी और रोशनी की अतरंगता में समय अवाक ....
धूमकेतू से टकरा कर हमने क्या जाना बदली नहीं दिशा उसकी गति उसकी
बच्चों की तरह उछले हम बेचैन खोलते खिड़की दरवाजों को अशांत मौसम में टटोलते अपनी स्थिरता को होते चकित अपने ही पैरों को देख अचानक, पर वह चलता गया चलता फुंफकारता अंतरिक्ष के तिमिर में बर्फानी फुंफकार अदृश्यता के व्योम में