Saturday, July 30, 2005
कुछ तस्वीरें
कुछ तस्वीरें, जहाँ सड़क का कोना खत्म होता है -
कोई मोड़,
फिर नया शुरू होता है.
30 जुलाई 05 © मोहन राणा
Thursday, July 28, 2005
Tuesday, July 19, 2005
जगह
शाम को मैं बादलों को देख रहा था और उस पल मैं दिल्ली पहुँच गया
डामर की सड़क जिस पर बारिश की बौछार के बाद निंबौरियाँ बिखरी थी और नंगे पाँव.
20.7.05 © मोहन राणा
डामर की सड़क जिस पर बारिश की बौछार के बाद निंबौरियाँ बिखरी थी और नंगे पाँव.
20.7.05 © मोहन राणा
Monday, July 18, 2005
अर्धसत्य
Sunday, July 17, 2005
लकीर
Friday, July 15, 2005
इतना भर
क्या कहूँ नया कि याद
नहीं कहा क्या आखिरी बार,
कहाँ से शुरू करूँ बात
मालूम नहीं कौन सा शब्द
निकले इस अजनबी निकटता में
मुलाकात यह पहचान पुरानी,
जैसे धूप का कोई कतरा
अटका पेड़ की छाल में ,
आज होगी पूरी कि बस
एक आश्वासन
16.7.05 © मोहन राणा
नहीं कहा क्या आखिरी बार,
कहाँ से शुरू करूँ बात
मालूम नहीं कौन सा शब्द
निकले इस अजनबी निकटता में
मुलाकात यह पहचान पुरानी,
जैसे धूप का कोई कतरा
अटका पेड़ की छाल में ,
आज होगी पूरी कि बस
एक आश्वासन
16.7.05 © मोहन राणा
दरवाजा
स्टेशन के दरवाजे के सामने
दरवाजा है हमारा
बस निकलते ही सामने है,
स्टेशन पर पहुँचते ही
बहुत दूर नहीं
15.7.05 © मोहन राणा
दरवाजा है हमारा
बस निकलते ही सामने है,
स्टेशन पर पहुँचते ही
बहुत दूर नहीं
15.7.05 © मोहन राणा
Thursday, July 14, 2005
गरमी गरमी
चीखती हुई कुछ बोलती चिड़ियाँ
लगाती बेचैन सूखते आकाश में गोता
यह एक चलता हुआ घर
भागती हुई सड़क पर
यह एक बोलती खामोश दोपहर.
14 जुलाई 05 © मोहन राणा
लगाती बेचैन सूखते आकाश में गोता
यह एक चलता हुआ घर
भागती हुई सड़क पर
यह एक बोलती खामोश दोपहर.
14 जुलाई 05 © मोहन राणा
सवाल
सच और भय की अटकलें लगाते
एक तितर बितर समय के टुकड़ों को बीनता
विस्मृति के झोले में
और वह बेमन देता जबाव
अपने काज में लगा
जैसे उन सवालों का कोई मतलब ना हो
जैसे अतीत अब वर्तमान ना हो
बीतते हुए भविष्य को रोकना संभव ना हो
जैसे यह जानकर भी नहीं जान पाउँगा
मैं सच को
वह समझने वाली बाती नहीं
कि समझा सके कोई सच,
आधे उत्तरों की बैसाखी के सहारे चलता इस उम्मीद में
कि आगे कोई मोड़ ना हो
कि कहीं फिर से ना पूछना पड़े
किधर जाता है यह रास्ता,
समय के एक टुकड़े को मुठ्ठी में बंदकर
यही जान पाता
कि सबकुछ
बस यह पल
हमेशा अनुपस्थित
12 जुलाई 2005 © मोहन राणा
Wednesday, July 06, 2005
अवाक
पिछले रविवार को शहर के बाहर एक नहर के किनारे टहलने चले गए, चमकती धूप में हरियाली
उनींदी , अपने ही पद्चाप अजनबी ध्वनित होने लगे कुछ देर चलने के बाद
कभी कोई बगुला कुछ सोच कर उड़ पड़ता छोड़कर बेचैनी पानी की हरित सतह पर
नीले रंग के ड्रैगनफ्लाई मंडराते यहाँ वहाँ बैठते...उँची घास पर
रास्ते का कोई छोर नहीं दिखता, गंतव्य क्या और कहाँ है यह भी नहीं मालूम
बस हम चलते चले गए- सुंदर और शांत, जहाँ पानी और रोशनी की अतरंगता
में समय अवाक ....
धूमकेतू
धूमकेतू से टकरा कर हमने क्या जाना
बदली नहीं दिशा उसकी गति उसकी
बच्चों की तरह उछले हम
बेचैन खोलते खिड़की दरवाजों को
अशांत मौसम में टटोलते अपनी स्थिरता को
होते चकित अपने ही पैरों को देख अचानक,
पर वह चलता गया चलता
फुंफकारता अंतरिक्ष के तिमिर में
बर्फानी फुंफकार
अदृश्यता के व्योम में
क्या जाना
हमने क्या जाना
कल का उत्तर
आज का प्रश्न
5.7.05
बदली नहीं दिशा उसकी गति उसकी
बच्चों की तरह उछले हम
बेचैन खोलते खिड़की दरवाजों को
अशांत मौसम में टटोलते अपनी स्थिरता को
होते चकित अपने ही पैरों को देख अचानक,
पर वह चलता गया चलता
फुंफकारता अंतरिक्ष के तिमिर में
बर्फानी फुंफकार
अदृश्यता के व्योम में
क्या जाना
हमने क्या जाना
कल का उत्तर
आज का प्रश्न
5.7.05
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