Wednesday, July 06, 2005

अवाक


पिछले रविवार को शहर के बाहर एक नहर के किनारे टहलने चले गए, चमकती धूप में हरियाली
उनींदी , अपने ही पद्चाप अजनबी ध्वनित होने लगे कुछ देर चलने के बाद
कभी कोई बगुला कुछ सोच कर उड़ पड़ता छोड़कर बेचैनी पानी की हरित सतह पर
नीले रंग के ड्रैगनफ्लाई मंडराते यहाँ वहाँ बैठते...उँची घास पर
रास्ते का कोई छोर नहीं दिखता, गंतव्य क्या और कहाँ है यह भी नहीं मालूम
बस हम चलते चले गए- सुंदर और शांत, जहाँ पानी और रोशनी की अतरंगता
में समय अवाक ....

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