Wednesday, July 06, 2005

धूमकेतू

धूमकेतू से टकरा कर हमने क्या जाना
बदली नहीं दिशा उसकी गति उसकी

बच्चों की तरह उछले हम
बेचैन खोलते खिड़की दरवाजों को
अशांत मौसम में टटोलते अपनी स्थिरता को
होते चकित अपने ही पैरों को देख अचानक,
पर वह चलता गया चलता
फुंफकारता अंतरिक्ष के तिमिर में
बर्फानी फुंफकार
अदृश्यता के व्योम में

क्या जाना
हमने क्या जाना
कल का उत्तर
आज का प्रश्न



5.7.05

What I Was Not

 Mohan Rana's poems weave a rich tapestry of memory and nostalgia, a journeying through present living. Explore the lyrical beauty of th...