Thursday, July 14, 2005

सवाल


सच और भय की अटकलें लगाते
एक तितर बितर समय के टुकड़ों को बीनता

विस्मृति के झोले में

और वह बेमन देता जबाव
अपने काज में लगा
जैसे उन सवालों का कोई मतलब ना हो
जैसे अतीत अब वर्तमान ना हो
बीतते हुए भविष्य को रोकना संभव ना हो


जैसे यह जानकर भी नहीं जान पाउँगा
मैं सच को
वह समझने वाली बाती नहीं
कि समझा सके कोई सच,
आधे उत्तरों की बैसाखी के सहारे चलता इस उम्मीद में
कि आगे कोई मोड़ ना हो
कि कहीं फिर से ना पूछना पड़े
किधर जाता है यह रास्ता,


समय के एक टुकड़े को मुठ्ठी में बंदकर
यही जान पाता
कि सबकुछ
बस यह पल
हमेशा अनुपस्थित


12 जुलाई 2005 © मोहन राणा