Wednesday, October 26, 2005

निर्मल वर्मा


निर्मल जी का मंगलवार की शाम को दिल्ली में निधन हो गया. कुछ दिन पहले ही मैं उनके स्वास्थय के बारे में सोच रहा था. मुझे लंदन से आज दोपहर एक ईमेल से यह खबर मिली.
जनसत्ता के लिए मैंने 1988 में लेखकों के साथ एक वार्तालाप श्रंखला "जो लिखा जा रहा है " लिखी. उसके लिए मैं निर्मल जी से करोलबाग उनके घर मिलने गया और फिर एक छोटी सी बातचीत घर की बरसाती में की. यह रविवारी जनसत्ता में 7 अगस्त 1988 में प्रकाशित हुई थी.
दिल्ली में उनसे पिछली बार मेरी मुलाकात इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में नवंबर 2002 में हुई थी, हम दोपहर का भोजन करते हुए कुछ बातें करते रहे मैंने उन्हें अपनी किताब "सुबह की डाक " भेंट की.
अभी मैंने फिर से जनसत्ता में छपी उस बातचीत की कतरन को खोज कर पढ़ा..अखबारी कागज का पीलापन बढ़ता जा रहा है और इसकी छपाई धूमिल पड़ती जा रही है.

एक दिन सारे अक्षर गुम हो जाएँगे. बस कुछ निशान...

पतझर अपने आप को समेट रहा है इन दिनों , पिछले दिनों की लगातार बारिश ने उसके रंगों को धो दिया है, बस जहाँ तहाँ गिरे हुए
गीले पत्ते- गलते हुए.
पूर्व दिशा में आज कल शाम ढलते ही मंगल ग्रह प्रकट हो जाता है चमकता और धरती के निकट आता हुआ.

What I Was Not

 Mohan Rana's poems weave a rich tapestry of memory and nostalgia, a journeying through present living. Explore the lyrical beauty of th...