Wednesday, December 26, 2007
बड़े दिन के बाद
आज दोपहर को मैं शहर में टहलने को निकला
क्रिसमस के बाद लोग खुश नज़र नहीं आते शायद ठंड की वज़ह से या कुछ दिनों में आने वाले मोटे बिल की चिंता में सोचते, सड़कों पर एक ठंडी मायूसी लौट आती है। अभी कुछ दिन और हैं इस साल में और हर ओर बाजार में सेल भी लगेंगी, कुछ तगड़ी शॉपिंग भी होगी और मौसम करवट बदलता रहेगा। अगले साल को आने से कोई रोक थोड़े ही रहा है। चाहे भी कोई तो भी - उस आते ही अतीत को जीना पड़ता ही है, आखिर अब तक अतीत ही तो जिया है.
Wednesday, November 07, 2007
Monday, October 08, 2007
पतझर
पतझर की आहटें पास आ रही है पेड़ो की टहनियाँ खाली होने लगी हैं और पत्तों के रंग पीले लाल. वे बारिश में गीले होते सूखते और गिरते हैं रात दिन. हवा मंडराने लगी है यहाँ वहाँ जैसे खोकर अपनी दिशा, वह गिरे हुए पत्तों को चुनती जैसे उनमें कुछ छिपा हो .. कुछ बचा हुआ समय. शाम को मौसम ठंडा होने लगा है शरद अपनी गहराई के निकट है,
कल एक तितली जाने कहाँ से कमरे में घुस आई, खिड़की के शीशे से टकराती उसे पंख फड़फड़ाती .. उसे नीले आकाश और धूप को छूना था पर शीशे की दीवार उसे रोके हुए थी, उसे देखकर आश्चर्य तो हुआ कि गरमियों में एक भी दिखाई नहीं दी फिर यह कहाँ से चली आई,
एक बात ही उससे हो गई, बन गई.
खिड़की खोली, वह कुछ पल को उँगली पर बैठी रही और हवा एक झोंका आया और उसके पंख खुले.
Tuesday, September 25, 2007
डरौआ
मैं जी लूँगा समय निकाल कर कहीं से
धूप के अँधेरे में,
स्वागत करूँगा समयहीन प्रदेशों में विपत्त्तियों के अंधड़ों का
इस बार भी,
कोई और नहीं आता उसके अलावा इस ओर
©2007/9/25
Sunday, September 16, 2007
सितंबर
दो मौसमों की टकराहट है इस क्षण, अचानक ग्रीष्म को ध्यान आया जाने का समय है पर जाने का मन नहीं है, शरद दरवाजे पर, थपथपाता. बेचैन पेड़ों में पत्तों की सरसराहट. धूप गरम है और हवा ठंडी... अनिश्चितता और आशंका का अतंराल, हर तरह के समझदार अनुभवी आश्वसनों के बावजूद .
अनिश्चितता ही एक मात्र निश्चितता लगती है.
हाथ उठा कर जवाब देना, जो हो चुका बताने की वाली बात है और उसकी पुष्टि भी वही बात है - दोनों का स्रोत स्मृति है. वहीं से सवाल है वहीं से जवाब.
Sunday, September 09, 2007
हर पहचान में
पेंच जहाँ भी पड़ती नजर
हर दिशा हर जगह हैं,
खिड़की दरवाजों दीवारों मेज
और जिस कुर्सी पे बैठा हूँ उस पर भी
पूरे घर में पेंच लगे हैं
वे संभाले हैं इसे गिरने से
सारी सड़क सारी दुनिया में पेंच लगे हैं
वे संभाले हुए हैं निकटताओं में दूरियों को,
नाना रूप धारी वे उपस्थित हैं हर पहचान में
मुझ पर भी लगे हैं पेंच भीतर और बाहर
बाँधे हुए मुझे अपने आप से
किसी धीमी आवाज से
और इन शब्दों से,
उनके झूठ का घाव बचाए हुए है मुझे व्याकरण के कारावास में सच से,
बस किसी अभाव को कुरेदता
खोज में हूँ किसी पेचकश की
कि खोल दूँ इनको
कि देखूँ
कि संभव है आकाश का नीला रंग
बिना ऑक्सीजन के भी
दीवार पर पेंच से जड़ी तस्वीर में
13.10.2003
"देखा मुखौटा किसका " कविता संग्रह" से ©
Sunday, July 22, 2007
कुछ दिनों पहले
चींटी
नहीं मालूम कि तुम जानना क्या चाहते हो !
यही बचाव
सफाई मैं देता रहा
सच के सवाल पर
और वे पूछते रहे फिर भी
क्योंकि उन्हें शक था मेरे सच पर
मैं तो बस एक चींटी हूँ
ले जाता अपने वजन से कई गुना झूठ
यहाँ से वहाँ
उसे सच समझ कर
मुझे करना है
मुझे कुछ जानना है
बनानी है पहचान आइने में
सोच सोच
अपने को उपयोगी रखता रहा
ताकि वे मुझे भूलें ना
मैं बुरा बनता गया
डूबता हुआ सूरज छोड़ गया
सुनहरे कण पत्तों पर,
पेड़ उन्हें धरती में ले गया अपनी जड़ों में
और कुछ मैंने छुपा लिए पलकों में
बुरे मौसम की आशंका में,
किसी दरार को सींते हुए.
एक बाढ़ आएगी कहीं से मुझे खोजते हुए.
Saturday, July 14, 2007
हिन्दी और विश्व
वैसे मुझे याद है जो लोग न्यूयार्क नहीं गए हैं इस बार, उनमें से कुछ लंदन तो गए थे छठे विश्व हिन्दी सम्मेलन में.. अमेरिका का वीज़ा सहजता मिलना आम जन के लिए सहज नहीं है उसकी एक जटिल प्रक्रिया है, पिछले साल वैज्ञानिक गोवर्धन मेहता तक को उन्होंने वीज़ा नहीं दिया,
यह सही है कि न्यूयॉर्क में हिन्दी जाति की समस्याओँ और साहित्य के जो संकट हैं उन्हें कोई भी संबोधित करेगा ऐसी संभावना कम ही लगती है, तथापि किसी तरह का विवाद खड़ा करने का प्रयास को कोई करेगा ऐसा संभव लगता है. सच यह है कि जब भारत में ही कोई उन संकटों को संबोधित नहीं कर रहा है और सभी बंदर बाँट और गुटबाजी और आपसी चापलूसी में लगे है और बड़े बड़े साहित्यकार ,मंगलेश जी के अनुसार हिन्दी में 20 ऐसे योग्य साहित्यकार हैं, जो नोबल पुरस्कार के योग्य हैं ! वे तक प्रकाशक के सामने दुम दबाये रहते हैं पर मंचों पर बड़ी बातें करते हैं, तो ऐसी स्थिति में इस तरह का विरोध तर्क कि यह न्यूयॉर्क में क्यों हो रहा है या इसकी सार्थकता क्या, खोखला और लिजलिजा लगता है और बस राजनैतिक तीरंदाजी है, और हिन्दी और भारत का दुर्भाग्य कहें इस तरह के तीर आत्मघाती ही सिद्ध हुए हैं.
राष्ट्रसंघ में यह कार्यक्रम करने का कारण कूटनीतिक है संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि श्री निरूपम सेन के भाषण को सुनकर ऐसा मुझे प्रतीत हुआ, हालाँकि जो विश्व स्थिति अभी बनी हुई है उसे देखते हुए उस कूटनीतिक लक्ष्य को प्राप्त करने में समय लगेगा. पर सब कुछ भारतीय नेतृत्व की क्षमता, धैर्य और ज्ञान पर निर्भर करता है. और भारतीय पक्ष की कमजोरियों से विरोधी पक्ष अच्छी तरह से अवगत है...
एक सवाल मन में आया, भारत में जो हिन्दी (साहित्य) है उस पर इस समय किसका वर्चस्व है? अगर भारतीय समाज के उस धड़े को हिन्दी का अंर्तराष्ट्रीय नेतृत्व मिल जाय तो क्या हिन्दी सच्चे अर्थों में आधुनिक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष हो जाएगी?( अगर वह अभी सच्चे अर्थों में आधुनिक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष नहीं है तो) ....
बस अंत में अटकलें ही साथ रह जाती है ....
Wednesday, June 27, 2007
फिर दिल्ली में
कुछ साल पहले की बात है (फिर दिल्ली में)
..एक कवि किसी सरकारी पत्रिका के संपादक हुआ करते थे... उससे पहले वे कहीं और थे किसी संस्था में.. वक्त बदला और वे संपादक हो गए.. पद के साथ उनका तेवर भी बदला,
..फिर एक अँग्रेजी के कवि जो उन्हें जानते थे उन्होंने खुलासा किया "... वे(संपादक जी) यह मानते हैं कि अगर वे किसी को ना छापें तो वह कवि नहीं है.. यानि वे (संपादक) इतने महत्वपूर्ण हैं.." पर अब वे संपादक नहीं हैं और उनका खुद का अता पता नहीं है...
फरवरी में जब मैं दिल्ली में था उस पत्रिका दफ्तर के सामने से गुजरते मुझे यह किस्सा ध्यान आया
मंडी हाउस के गोल चक्कर में सात रास्ते आकर मिलते हैं सात वहाँ से शुरू होते हैं और आजकल मैट्रो भी वहाँ से गुजरती है.
कुछ दिनों से नया ज्ञानोदय के युवा अंक को लेकर ईमेल आ रही हैं, अंक के विवाद में कुछ नाम परिचित लगते हैं कुछ अनजाने ... अंक उच्चायोग से मँगवाया, प्रतीक्षा में हूँ, इंटरनेट पर जुलाई का अंक है पुराने अंक नया ज्ञानोदय की साइट पर दिखे नहीं,
तो अंक पढ़ने के बाद शायद कुछ स्पष्ट हो कि चक्कर क्या.
बारिश रूक गई है पर पिछले तीन दिनों में खूब जमकर हुई थी, शाम को जब बगीचे में निकला तो पौधों के बीच कुछ चमकता दिखा, झुक कर देखा - बंदगोभी के एक पत्ते पर चमकती हुई एक बूँद पानी की बची हुई थी. एक दम स्थिर और खामोश...
Monday, June 25, 2007
कहाँ जुड़ते हैं ये तार
"इस छोर पर " कविता संग्रह से एक कविता >>>>
बंदर का नाच
मैं मदारी हूँ बंदर भी एक साथ
सच एक ही मुखौटे में दो चेहरे हैं
छायाओं को मिटा दो
थोड़ा और पास आ के देखो
दोपहर के निर्जन अंतराल में
तमाशे की डुगडुगी गलियों में मंडराती,
करता हूँ मैं प्रतीक्षा
खिड़कियों के खुलने की
दरवाजों के बंद होने की
हवा के थमने की, किसी के बोल पड़ने की
उछलते कूदते अपनी रस्सी को पकड़े
टोपी को उछालते
अंधेरी सुरंग में नींद लंबी
कि रात का सफर कुछ नहीं बस
ठोस खंबों से टकराता समय
मनुष्यों का मरना बंद हो गया जैसे एकाएक
धरती अपने धुरी पर ठहरी सी और मैं
कानों पे हाथ लगाए चकित
अपनी अमरता पर
और यह दर्पण तो नश्वरता है,
अरे यह तो मैं
गोल गोल घूमता
बंदर और मदारी भी
1.6.2000
इस छोर पर ( कविता संग्रह)
प्रकाशन वर्ष - 2003
वाणी प्रकाशन , दिल्ली
Monday, June 04, 2007
गर्भ से बाहर
काले रंग को पहचानना असंभव होता है
सब ओर जब अंधकार हो
पर अगर देख सकते हैं हम
और कहते उसे स्याह
कैसा है सोचकर
तो कोई स्रोत तो होगा ही उसे देखने के लिए
वे आँख नहीं
वह मन नहीं
फिर क्या
जो कर दे अपनी पुष्टि
कैसे करूँ प्रमाणित कि सहमति हो जाय हमारे बीच
अपने अपने अँधेरे पर
भाषा ने परिभाषित कर
सीमित कर दिया अनुभूति को
गर्भ से बाहर
हम अँधेरा देख सकते हैं
या रोशनी की जरूरत भ्रम है!
या बस जन्मजात आदत है
कुछ देखने के लिए कि
कुछ लिख दूँ अँधेरे में
स्याही से
जो पढ़ा जा सके रोशनी की दुनिया में
15मई07
Monday, May 28, 2007
आजकल आप क्या लिखने के लिए प्रसिद्द हैं!
नामवर सिंह के वक्तव्य के कारण क्या हो सकते हैं मैंने अटकलें लगाने की कोशिश की.. शायद इसके पीछे कोई मानसिक कारण हो, राजनैतिक, सांस्कृतिक... शायद साहित्यिक ! या
हो सकता हो बनारस की गर्मी...
वैसे कुछ दिनों पहले मैंने सुना (और यह सुनी हुई बात भर है इसकी प्रामाणिकता की पुष्टि मैं नहीं कर सकता, बस यह सुनी हुई बात है) दिल्ली में भी कुछ ऐसी ही बात हुई थी, एक संपादक और कवि के बीच में, किसी रस -रंजन की पार्टी में.... अवसर एक हिन्दी के नामी कवि के जन्म दिन की पार्टी! संपादक ने "घटिया" जैसे उत्तेजक और आक्रामक शब्द का प्रयोग किया... तो रस-रंजन के बाद "बल प्रयोग" तो होना ही था... कोर्ट-कचहरी की क्या जरूरत, कवि खुद ही
मामला निपटाना चाहते थे...
पर बनारस वाले मामले के संदर्भ में इस लोक में यह संभव नहीं..
इस तरह की हवा बाजी और असमावेशी घट्ठेपन की बानगियाँ आए दिन हिन्दी भाषी समाज और साहित्य में प्रकट हो रही हैं ..ना कोई आश्चर्य है ना ही निराशा यह देख कर पढ़कर और सुनकर.
कुछ महीनों पहले दिल्ली से एक कवि,अनुवादक और आलोचक का ईमेल आया
उसमें उन्होंने एक सवाल किया "आजकल आप क्या लिखने के लिए प्रसिद्ध हैं....."
उन्होंने याद किया यह सोचकर अच्छा लगा! पर उसके पीछे deal क्या थी यह नहीं स्पष्ट हो पाया
Sunday, May 27, 2007
Monday, April 16, 2007
अंकुर
Tuesday, April 10, 2007
बगीचे में
Monday, April 09, 2007
पुरानी तस्वीर
दिल्ली में मुझे अपने "पुरा कोष" डिब्बे में कैप्टन प्रभात अग्रवाल की तस्वीर मिली , फरवरी 1986 - देहरादून , भारतीय सैन्य अकादमी.. मैं प्रभात से मिलने के लिए मसूरी जाते हुए एक दिन के लिए देहरादून रूक गया.
मसूरी में बर्फ गिरी हुई थी , दून घाटी से मसूरी की बर्फ से ढँकी ऊँचाईयाँ दिखाई दे रही थी.
और एक बार फिर कई बरस बाद कैप्टन प्रभात की चिठ्ठी पढ़ी , ....अभी उस चिठ्ठी का जवाब देना है - पर वह कहाँ है अब ...
Capt Prabhat Agarwal >>Feb 1986 >> Indian Military Academy
Sunday, April 08, 2007
टिप्पणी
Thursday, April 05, 2007
स्पाइस जेट
खिड़की पर अपना चेहरा सटा कर मैंने कुछ पहचानने की कोशिश की.... 30 हजार फीट से भी भला कोई पहचान हो सकती है, आकाश फिर भी उतना ही दूर लगता है जितना पैदल चलते कोलाहल से और बादल अलौकिक! हवाई जहाज शायद मध्यप्रदेश के ऊपर होगा, मैंने सोचा . चमकती हुई रोशनी में कुछ बादल नीले आकाश पर बिखरे और नीचे मध्य भारत का धुंधला भूगोल. पीछे वाली कुर्सियों पर लगभग हर कोई सो चुका था, आगे वाली कुर्सी पर दो बच्चे ऊधम में लगे थे . बच्चों के माँ- बाप आपस में अंग्रेजी में संवाद कर रहे थे बीच बीच में वे बच्चों को र्निदेश देते - फिर अपने साथ यात्रा कर रही बच्चों की आया से हिन्दी में कुछ कहते... मैं सोचने लगा मालिक- नौकर की भाषाएँ अलग -अलग हैं !?
भारत में हिन्दी किसकी भाषा है या नहीं है ?
बादल कुछ देर तक जैसे साथ उड़ते रहे. मैं बेंगलौर के बारे में सोचने लगा जहाँ मैं पहली बार जा रहा था.
Sunday, April 01, 2007
सीटी
Monday, March 19, 2007
प्रस्तरो भविता नदी
Tuesday, January 30, 2007
दिन अच्छा था
दिन रोज आते हैं पर कभी कोई दिन अच्छा निकल आता है, उसे उठाता हूँ कि देखूँ जरा गौर से कि वह फिर समय की नदी में बह जाता है..
एक कविता ("इतना कुछ एक साथ " कविता संग्रह से )
धोबी
चमकती हुई धूप सुबह की
चीरती घने बादलों को चुपचाप
देखते भूल गया मैं आकाश को
दुखते हुए हाथों को,
पानी में डबडबाते प्रतिबिम्ब की सलवटें देखते
मैं भूल गया
अपनी उर्म को,
झूमती हुई हरियाली में लहुलुहान छायाओं को देखते
भूल गया मृतकों के वर्तमान को
जो सोचा करने लगा कुछ और,
घोलता नीले आकाश में बादलों के झाबे को
मैं धो रहा हूँ अपने को
1.5.2003
© मोहन राणा
Monday, January 08, 2007
हिन्दी टूलकिट
"नया हिन्दी टूलकिट इंस्टालर" http://himanshu.blogiya.com/archives/100
मैंने इसे जाँचा नहीं है क्योंकि यूनीकोड का प्रयोग मैं पहले ही कर रहा हूँ पर जो यूनीकोड का प्रयोग करना चाहते हैं उनके लिए इस टूलकिट के विवरण के अनुसार - यह उपयोगी और सुविधाजनक उपकरण लगता है.
हिन्दी भाषा की स्थिति के बारे पिछले कुछ सप्ताहों में काफी कुछ पढ़ने सुनने और बतियाने का अवसर मिला.. बात कुछ ऐसी सी है...
जब हिन्दी का चना चबाने वाले ही अपने दांत स्वंय तोड़ने में लगे हैं तो डैंटिस्ट को दोष देना मूर्खता की बात है.
शब्द
Friday, January 05, 2007
हिन्दी लेखक उर्फ एक दिन
कुछ दिन पहले एक लेखक संघ की बैठक की रपट पढ़ी,
उसमें जो प्रस्ताव पारित किए गए पढ़ कर मैं दंग रह गया...सोचने लगा
यह लेखकों के हित में काम करने वाला संगठन है या किसी राजनैतिक दल की शाखा..
अंग्रेजी में कहावत है If You Pay Peanuts, You Get Monkeys.
एक प्रकाशक से जब मैंने कुछ साल पहले रायल्टी की बात कही तो उनके चेहरे पर
एक अचरज का भाव आया... जैसे वह शब्द उन्होंने पहली बार सुना हो..
कर दिया ना खेल खराब मैंने बाद में सोचा, अब अगली किताब छापने में अनाकानी यह प्रकाशक करेगा.. और हालत भी ऐसी है ना, पिछले साल दिल्ली में एक गोष्ठी में जाने का अवसर मुझे मिला... वहाँ जो "साहित्यकार" वो या तो विश्वविद्यालय में हिन्दी का प्राध्यापक/ प्राध्यपिका या कोई सरकारी अधिकारी और साहब हर किसी की किताब प्रकाशक के पास लगी हुई है... कुछ कुछ किसी कल्ब जैसा माहौल वहाँ...
और उनके अड़ोसी पड़ोसी तक को पता नहीं कि कोई "साहित्यकार" उनके बीच में हैं...
एक पत्रिका के दफ्तर में यह मुझे एक "सीरियस" साहित्यकार ने गंभीर मुद्रा में चेताया कि देखिए क्या स्थिति है!
..'समाज में (हिन्दी)लेखक की उपस्थिति दर्ज ही नहीं कहीं भी..' फिर हम दोनों एक लंबे
मौन में ठहर गए, फंसे रह जाते उस मूक अंतराल में, पर सौभाग्यवश तभी उनका सहायक कमरे में चाय ले आया.
ऐसा क्यों है कि "सच" को जानकर हमें गुस्सा ही आता है जबकि उसकी तलाश में हम बावले हुए जा रहे हैं.
.. यह भी संभव है कि शायद दसवीं कक्षा की हिन्दी परीक्षाएँ हों ही ना, एक दिन.
"जॉब" के लिए हिन्दी पढ़ना लिखना आवश्यक थोड़े ही है.
वैसे भी ज्यादा सोचने से "हैडएक" हो जाता है.
Monday, January 01, 2007
नववर्ष 2007
What I Was Not
Mohan Rana's poems weave a rich tapestry of memory and nostalgia, a journeying through present living. Explore the lyrical beauty of th...
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Ret Ka Pul | Revised Second Edition | रेत का पुल संशोधित दूसरा संस्करण © 2022 Paperback Publisher ...
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चुनी हुई कविताओं का चयन यह संग्रह - मुखौटे में दो चेहरे मोहन राणा © (2022) प्रकाशक - नयन पब्लिकेशन