Tuesday, December 29, 2009
अंतिम दिन
भीगती शाम ठिठुरती सर्द पानी में
दरवाजे के बाहर ही है अब नया साल
समय को बाँचता दस्तक देने से पहले
कुछ छुट्टे पैसे ही बचे हैं उसकी जेब में
ये कुछ दिन,
जिनमें ना आशा है ना उदासी
वे ना जिंदा हैं ना अचेत
बस एक बेचैन धड़कन
अगर मैं उन्हें चूम लूँ
तो एक ही डर
कहीं बंध ना हो जाऊँ समय के अविरल प्रवाह में
कहीं भूल ना जाऊँ अपना नाम
कैसे पहचानूँगा फिर तुम्हें!
अभिशप्त जैसे ये क्षण निरंतर आर्तनाद में डूबे
मैं कानों को बंद करता हूँ
पर खुली रह जाती हैं आँखें
----------------
© मोहन राणा
दरवाजे के बाहर ही है अब नया साल
समय को बाँचता दस्तक देने से पहले
कुछ छुट्टे पैसे ही बचे हैं उसकी जेब में
ये कुछ दिन,
जिनमें ना आशा है ना उदासी
वे ना जिंदा हैं ना अचेत
बस एक बेचैन धड़कन
अगर मैं उन्हें चूम लूँ
तो एक ही डर
कहीं बंध ना हो जाऊँ समय के अविरल प्रवाह में
कहीं भूल ना जाऊँ अपना नाम
कैसे पहचानूँगा फिर तुम्हें!
अभिशप्त जैसे ये क्षण निरंतर आर्तनाद में डूबे
मैं कानों को बंद करता हूँ
पर खुली रह जाती हैं आँखें
----------------
© मोहन राणा
Monday, December 14, 2009
गोपन कथा
हमारी जिंदगी ऐसी गोपन कथा सी है हमें सब मालूम
फिर भी खोजते रहते हैं हम संकेतों को उस जिंदगी को जीते हुए
उसे पहेली मान लगे रहते हैं बूझते
पेड़ों से अदृश्य जंगलों में लुढ़कती हुई नींद की ढलानों पर
संभालते अपने आपको
बटोरते अपनी नग्नता को पतझर के बियाबान में
उकेरते अपनी जिंदगी की त्वचा पर संकेत
ये जानकर कि इस गोपन कथा में विस्मृति अपरिहार्य स्थिति है
कि शायद उसके बाद कुछ बची रहे चेतन स्मृति
कि बूझ सकें उन संकेतों को जो हमने लिखे थे भविष्य के लिए,
जिन्हें पढ़ रहें हैं हम आज, उस नन्ही लौ के सहारे समय के अंधकार में
© मोहन राणा
फिर भी खोजते रहते हैं हम संकेतों को उस जिंदगी को जीते हुए
उसे पहेली मान लगे रहते हैं बूझते
पेड़ों से अदृश्य जंगलों में लुढ़कती हुई नींद की ढलानों पर
संभालते अपने आपको
बटोरते अपनी नग्नता को पतझर के बियाबान में
उकेरते अपनी जिंदगी की त्वचा पर संकेत
ये जानकर कि इस गोपन कथा में विस्मृति अपरिहार्य स्थिति है
कि शायद उसके बाद कुछ बची रहे चेतन स्मृति
कि बूझ सकें उन संकेतों को जो हमने लिखे थे भविष्य के लिए,
जिन्हें पढ़ रहें हैं हम आज, उस नन्ही लौ के सहारे समय के अंधकार में
© मोहन राणा
Wednesday, December 09, 2009
Tuesday, December 08, 2009
Monday, November 30, 2009
सवाल नहीं है आज
सवाल नहीं है आज सुनकर
उठता है सवाल
इस बात पर,
मैं अब आकाश को नहीं ताकता पैरों को घूरता हूँ
मुझे करनी थी प्रतीक्षा उनकी इस पल यहीं
इस एकांत में इस कोलाहल में इस चुप्पी में अपने भीतर इस चीख में
यहीं इस खुशी में इस क्रोध में इस उदासीन समय की करवट में
यह खरोंच ऊँगली पर
धीमे से धड़कती है पीड़ा उसके आसपास,
कहीं चला तो नहीं गया मैं कहीं और आकाश को ताकते
मेरी अपनी छाया गुम है इस एकाएक जवाब पर
मेरा प्रश्न क्या आज सवाल हैं
दिन करता रहा प्रतीक्षा
और प्रश्न जैसे आकर जा भी चुके
तो क्या दिन बीत गया
सुबह हो गई
फिर यह शाम कैसी,
जवाब जिनके लिए नहीं शब्द अब मेरे पास
सवाल नहीं है आज
30.11.09
© मोहन राणा
उठता है सवाल
इस बात पर,
मैं अब आकाश को नहीं ताकता पैरों को घूरता हूँ
मुझे करनी थी प्रतीक्षा उनकी इस पल यहीं
इस एकांत में इस कोलाहल में इस चुप्पी में अपने भीतर इस चीख में
यहीं इस खुशी में इस क्रोध में इस उदासीन समय की करवट में
यह खरोंच ऊँगली पर
धीमे से धड़कती है पीड़ा उसके आसपास,
कहीं चला तो नहीं गया मैं कहीं और आकाश को ताकते
मेरी अपनी छाया गुम है इस एकाएक जवाब पर
मेरा प्रश्न क्या आज सवाल हैं
दिन करता रहा प्रतीक्षा
और प्रश्न जैसे आकर जा भी चुके
तो क्या दिन बीत गया
सुबह हो गई
फिर यह शाम कैसी,
जवाब जिनके लिए नहीं शब्द अब मेरे पास
सवाल नहीं है आज
30.11.09
© मोहन राणा
Saturday, November 07, 2009
सबसे ऊँची छत
सबसे ऊँची छत से क्या बादल दिखाई देते हैं
क्या वहाँ भी होती है बारिश
क्या वहाँ भी बहते हैं पतझर के आँसू गिरती हुई बूँदों में
क्या वहाँ भी होती है दोपहर सुबह और शाम के बीच....
क्या वहाँ दुनिया को बनाने वाला कुम्हार रहता है
मिट्टी की बनी यह दुनिया टूट गई है सबसे ऊँची छत से गिर कर
क्या ठीक कर सकता है वह इसे.
©मोहन राणा
क्या वहाँ भी होती है बारिश
क्या वहाँ भी बहते हैं पतझर के आँसू गिरती हुई बूँदों में
क्या वहाँ भी होती है दोपहर सुबह और शाम के बीच....
क्या वहाँ दुनिया को बनाने वाला कुम्हार रहता है
मिट्टी की बनी यह दुनिया टूट गई है सबसे ऊँची छत से गिर कर
क्या ठीक कर सकता है वह इसे.
©मोहन राणा
Friday, November 06, 2009
जहाँ बादल सुनाते हैं संदेश
Thursday, October 15, 2009
याद करते तुम्हें
कितने दिन बाद मिले
यही याद है
बीते कितने दिन इस बीच
बेलें फैली सूखी दीवारों पर
बारिश में बह गईँ
छोड़ कर निशान
तस्वीरें भी पुरानी हो गईं
एकतरफा पहचानते पहचानते
पर सपनों में तुम हमेशा मिली
बीते वहाँ कई दिन
रोशनी और अँधेरा
खुशी की सलवटें
तुम्हारी आवाज वही है
पुकारो तो जरा मेरा नाम
मैं मुड़ कर पहचानना चाहता हूँ
एक अजनबी को बाजार में,
झिझकर माफी माँगता हूँ फिर से
बीते कितने दिन अटैची की तहों में
अतीत को देखूँ तो लगता
अभी तो पहला ही दिन शुरू हुआ
बीतते भविष्य के विस्तार में
हाथों में उछालते कैच करते
गेंद को फेंक देता हूँ उसके भीतर,
याद करते तुम्हें
मैं एक खोई गेंद को खोज रहा हूँ इस ऊँची घास के मैदान में.
Thursday, October 08, 2009
काबुलीवाला कहता है
मौसम तो जैसा है ठीक ही है
गरमी हो या सर्दी पतझर हो या बरसात
अगर में जग जाऊँ तो अच्छा है
पता नहीं पर दिल्ली में सब सो रहे हैं
यह कैसा अनाम मौसम,
पता नहीं वे किसके पैर हैं
गरमी हो या सर्दी पतझर हो या बरसात
अगर में जग जाऊँ तो अच्छा है
पता नहीं पर दिल्ली में सब सो रहे हैं
यह कैसा अनाम मौसम,
पता नहीं वे किसके पैर हैं
जिन्हें दिखता नहीं
कहते हैं अमरीका के पाँव दबाए जा रहे हैं
कहते हैं अमरीका के पाँव दबाए जा रहे हैं
दिल्ली में सब सो रहे हैं
किसकी यह नींद किसका यह सपना
सोचता काबुलीवाला
जागकर किसी को बताऊँ जो हैरान ना हो,
उनींदे में पुकारता जागते जागते रहो
किसकी यह नींद किसका यह सपना
सोचता काबुलीवाला
जागकर किसी को बताऊँ जो हैरान ना हो,
उनींदे में पुकारता जागते जागते रहो
Sunday, October 04, 2009
क्या सूरज हमारी स्मृतियों का लाइब्रेरियन है?
Thursday, September 10, 2009
मरीचिका
गहराती शाम की तंद्रा टूटती
किलकारी लेती अबाबील लगाती गोता छत की मुंडेर में,
छापा जाता है पैसे को मशीनों से
कागज पर लिखा मूल्य तय करता है
सड़क पर अस्मिता
तय करता है आवश्यकता,
महत्व केवल मूल्य के विचार भर से ही
और सच्चाई जैसे कोई स्मृति!
रेत और पानी में छुपी है समुंदर की सीत्कार
खुली आँखों से देखता यह सपना
प्यास परछाईँ की तरह साथ बैठी है
दीवार पर चस्पा जंगल उधड़ जाएगा
छूट जाएगी गोंद नकली वालपेपर की,
कभी हुआ करती थी उस दीवार में
खिड़की की तस्वीर
24.6.09 ©
किलकारी लेती अबाबील लगाती गोता छत की मुंडेर में,
छापा जाता है पैसे को मशीनों से
कागज पर लिखा मूल्य तय करता है
सड़क पर अस्मिता
तय करता है आवश्यकता,
महत्व केवल मूल्य के विचार भर से ही
और सच्चाई जैसे कोई स्मृति!
रेत और पानी में छुपी है समुंदर की सीत्कार
खुली आँखों से देखता यह सपना
प्यास परछाईँ की तरह साथ बैठी है
दीवार पर चस्पा जंगल उधड़ जाएगा
छूट जाएगी गोंद नकली वालपेपर की,
कभी हुआ करती थी उस दीवार में
खिड़की की तस्वीर
24.6.09 ©
Sunday, August 30, 2009
Tuesday, August 25, 2009
Thursday, July 30, 2009
कल परसों कि आज
Wednesday, July 29, 2009
विदूषक
Thursday, July 23, 2009
चाँद के बाहुपाश में सूरज
: सूरज-चाँद के बिना धरती पर जो जीवन है जिसे हम जीवन कहते हैं वह असंभव है,
दोनों का अदभुद तालमेल है,
उनकी जुगलबंदी में धरती पर जीवन को लय मिलती.
(सूर्यग्रहण 22 जुलाई09 6.26 प्रातः)
आर्यभट्ट (476 ईस्वी) ने सूर्य ग्रहण को लेकर एक श्लोक की रचना की थी-
'छादयति शशि सूर्यं, शशिनं च भूच्छाया'
अर्थात्
सूर्यग्रहण के समय चंद्रमा सूर्य को ढक लेता है और चंद्रमा को पृथ्वी की छाया।
(सूर्यग्रहण 22 जुलाई09 6.26 प्रातः)
आर्यभट्ट (476 ईस्वी) ने सूर्य ग्रहण को लेकर एक श्लोक की रचना की थी-
'छादयति शशि सूर्यं, शशिनं च भूच्छाया'
अर्थात्
सूर्यग्रहण के समय चंद्रमा सूर्य को ढक लेता है और चंद्रमा को पृथ्वी की छाया।
Friday, July 17, 2009
विक्रम सेठ I wish
विक्रम सेठ एक साक्षात्कार में कहते हैं
'I Wish More Writers Would Fight For A Big Advance' Vikram Seth
http://www.outlookindia.com/full.asp?fodname=20090720&fname=AVikram+Seth&sid=1
पर विक्रम अंग्रेजी में लिखते हैं उनका आशय यह आवहन ... ललकार उसी भाषा के लेखकों के लिए होगी ... पर हिन्दी के मसिजीवियों का क्या होगा. बंदर के गले में कौन बिल्ली सौ चूहे खाकर घंटी बाँधेगी.
कागज के जंगलों में कागजी शेरों की दहाड़ या म्याउ
स्याह रिक्तताओं में भटकते
याद दिलाते अपनी ही भूली पहचान ...
अब तो आइने भी महँगे हो चुके हैं
'I Wish More Writers Would Fight For A Big Advance' Vikram Seth
http://www.outlookindia.com/full.asp?fodname=20090720&fname=AVikram+Seth&sid=1
पर विक्रम अंग्रेजी में लिखते हैं उनका आशय यह आवहन ... ललकार उसी भाषा के लेखकों के लिए होगी ... पर हिन्दी के मसिजीवियों का क्या होगा. बंदर के गले में कौन बिल्ली सौ चूहे खाकर घंटी बाँधेगी.
कागज के जंगलों में कागजी शेरों की दहाड़ या म्याउ
स्याह रिक्तताओं में भटकते
याद दिलाते अपनी ही भूली पहचान ...
अब तो आइने भी महँगे हो चुके हैं
Tuesday, June 23, 2009
अनुवाद
कुछ कविताओँ के अंग्रेजी अनुवाद
http://www.poetrytranslation.org/poems/single/201/The_Poets_Fate
http://www.poetrytranslation.org/poems/single/202/The_Washerman
http://www.poetrytranslation.org/poems/single/203/The_Blue-Eyed_Blackbird
http://www.poetrytranslation.org/poems/single/201/The_Poets_Fate
http://www.poetrytranslation.org/poems/single/202/The_Washerman
http://www.poetrytranslation.org/poems/single/203/The_Blue-Eyed_Blackbird
Friday, May 29, 2009
आशा नाम छतरी का
Sunday, May 17, 2009
बारिश
Tuesday, March 10, 2009
तिब्बत
Wednesday, March 04, 2009
The Clone
sleeping till midnight ? I asked the man.
He said I am awake you are asleep,
but we are both dreaming,I said.
He said I am awake you are asleep,
but we are both dreaming,I said.
Sunday, February 08, 2009
हिममानव
ताकती उनकी खुली आंखें सफेद आकाश को
चलते चलते वे जैसे रूक गए पार्क की ढलान पर
संभवी मुद्रा में
पेडो़ं के बीच
ठिठका
उन्हें देख
कहीं वे
लोग
जनमे हो जैसे इस बार जल चेतना में
मुझ से डर कर तो नहीं बन गए बर्फानी बुत
वे सोचते होंगे
कैमरे के लेंस से
अपलक उन्हें देखता है कोई हिममानव?
भय अज्ञान है
सच्चाई भय
और अज्ञान सच्चाई है
© 8/2/2009
Thursday, January 15, 2009
सफेद सूरज
Thursday, January 01, 2009
नववर्ष 2009 की हार्दिक शुभकामनाएँ
31 दिसंबर की सुबह जमे हुए पाले में प्रकट हुई, बाहर कुहासे में ठिठुरता हुआ सन्नाटा. बगीचे में एक मैग्पाइ (मुटरी) उड़कर शंकु वृक्ष के शिखर पर बैठ गई. हमेशा सतर्क रहने वाली चिड़िया, चुपके से उसकी दो तीन तस्वीरें ले ली. इसे चालाक और चोर चिड़िया लोग कहते हैं क्योंकि इसके घोंसले में चमकीली चीजें पाई जाती हैं. पर चीन में मैग्पाइ को शुभ माना जाता है.
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What I Was Not
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चुनी हुई कविताओं का चयन यह संग्रह - मुखौटे में दो चेहरे मोहन राणा © (2022) प्रकाशक - नयन पब्लिकेशन