Wednesday, December 29, 2010
अपनी ऊँचाई समतल
लोग कहते हैं अपनी मीनार से उतर कर देखो सड़क की हालत
ऊँचाई से सब समतल ही दिखता है
पार करके तो तो देखो सड़क के खोए छोरों को
ज़मीन से देखो गिरते आकाश को
आँखें खोल कर देखो इस दुस्वप्न को
शायद अब सुनाई दे कोलाहल में गुम कोई विनती
खुरदरी हवा हर कोमलता को छील देती है यहाँ
पर कहाँ हैं वे जो देते हैं चुनौती
मुझे सच्चाई दिखाने की
उड़े जाते हैं वे उड़नखटोलों में
© मोहन राणा
Monday, November 15, 2010
Tuesday, November 09, 2010
यथार्थ की ओर
सोया तन किस का
जागा मन किसका
भागते रूका कौन सोचते
ये पैर दौड़ते हैं
या भागती हैं दूरियाँ !
जिसमें ना हो साहस
अच्छा हो वो ना बोले झूठ
मौन हैं कौवे नीरव दोपहर में
पेड़ देखा दो हज़ार पुराना
पतझर में गिरते हैं पत्ते उसके भी पिछले बसंत के.
कवि जी कहते हैं दो और दो होते हैं साढ़े तीन
मैं खोजता रहा बरसों से
अब तक इस सवाल का जवाब
© 9/11/10
Friday, September 17, 2010
खिड़की
रात भर जागते
वे सितारे जहाँ हैं
दिखते अँधेरे आकाश में डबडबाते
लाखों प्रकाशवर्ष बाद
वे नहीं उपस्थित सिवा रोशनी के,
भरोसा दिलाती उनकी चमकती अनुपस्थिति
किसी किनारे को खोजते भटके वर्तमान को
तुम्हारा संगीत तुम्हारी लछमन रेखा
तुम्हारी पुलिया
तुम्हारी नौका
तुम्हारे पंख
तुम्हारी खिड़की है,
तुम्हारा संगीत अनुगूँजता
आँखें बंद मैं सुनता देखता
समय की आत्मा पर तुम्हारा प्रतिबिम्ब
17.9.10 ©
Friday, September 03, 2010
कुछ पत्थर
जुटा हूँ बाँध बनाने में
एक नई नदी के लिए
जनमेगा एक नया समुंदर उसके गर्भ से,
कुछ पत्थर जमा किये हैं बादलों को रोकने के लिए
जागेगा कोई पहाड़ उनमें सोया हुआ
3.9.10 ©
एक नई नदी के लिए
जनमेगा एक नया समुंदर उसके गर्भ से,
कुछ पत्थर जमा किये हैं बादलों को रोकने के लिए
जागेगा कोई पहाड़ उनमें सोया हुआ
3.9.10 ©
Tuesday, August 31, 2010
देखना जो दिखता नहीं
Saturday, August 28, 2010
Friday, August 27, 2010
पुराने दिल्ली के स्टेशन बाहर
{The Taoist sage has no ambitions, therefore he can never fail. He who never fails always succeeds. And he who always succeeds is all- powerful}
चंपारण से कई घंटो की सत्याग्रह एक्सप्रेस यात्रा के बाद
जनसेवक जी बड़ी मुश्किल से कमर सीधी कर प्लेटफार्म पार कर सके
बाहर बाबा लाउत्से अपने तोते के साथ बैठे थे
टैस़ला से जानें अपना भविष्य, मुड़े हुए गत्ते पर बाकी मिट गया था,
प्यार से पुचकारते टैस़ला को दाना चुगाते
एक दाना वे खुद भी चबा लेते,
जनसेवक जी अपना झोला झाबा संभालने वहाँ रुके
कि लाउत्से ने आवाज दी
अरे ओ जनसेवक कहाँ जाता है बच्चा
ले जाने ले अपना भविष्य टैस़ला से
काली के युग में हाहाकार
बतायेगा तुम्हारी महादशा
जान ले इससे पहले हो जाए तुम्हारी लालबत्ती,
जनसेवक जी पान की पीकों से रंगीन पौधे के गमले की ओर छड़ी उठा के बोले
नहीं भय्या जल्दी ही
अपनी तो बत्ती जाने कब से फ्यूज़् ही है
©27/8/10
Thursday, August 26, 2010
पूर्वपीठिका
Wednesday, August 18, 2010
दोपहर के बीच गुमनाम दिन
कविता के लिए कोई नया शब्द नहीं
मेरी पड़ोसन ने संगीत का स्वर अपने मकान में तेज कर दिया, पिछली कई मर्तबा से भी तेज
मकान की दीवारें अचानक जैसे अपनी गहरी तंद्रा से जाग उठी यह कैसा ध्वनि तंत्र इस पड़ोसन ने आज चालू कर दिया,
मैं संग्रह के ड्राफ्ट में उलझा बैठा हूँ वह शराब पी के ऊँची आवाज में संगीत सुन रही है- कैसे कोई सुन सकता है मदहोशी में... मेरी खीज धीरे धीरे बढ़ती गई.. आखिर मुझसे रहा नहीं गया.
बाहर सड़क पर पार्क कारों और अकेली खंबो की जगमगाहट के कोई नहीं दिखता, रविवार की शाम है.
मैंने थोड़ा साहस करके दरवाजे की घंटी बजाई.. पर भीतर से संगीत के अलावा कुछ सुनाई नहीं दिया..
आखिर में लड़खड़ाती सी वह दरवाजे पर आई , मैंने उसे कहा.. जरा.. कृपया संगीत कम कर दें.... अह ओके, मदहोश स्वर में उसने कहा और दरवाजा बंद कर दिया..
मैं उम्मीद के साथ फिर डेस्क पर..
पर अब संगीत जैसे कुछ और उद्वेलित हो गया.... आखिर फिर कुछ देर तक अपने ही आत्मविवाद से गुस्सा कर मैं फिर उसके दरवाजे की ओर बढ़ गया..
इस बार एक खुरदरी सफेद दाढ़ी वाला आदमी दरवाजे पर उपस्थित हुआ
.. ये संगीत जरा कम कीजिये ना
.. नहीं मैंने कम कर दिया है वह खीज के बोला..
मेरे घर से आप आ कर सुनें कितना तेज है दीवारें कांप रही हैं, मैंने उसे आमंत्रित किया
नहीं,उसका स्वर कुछ उत्तेजित हो गया, मैंने कम करना था कर दिया.
संगीत कम करिये जरा मैं कुछ लिख रहा हूँ,
क्या समय हुआ वह बोला ये कोई लिखने समय है क्या..
मैं लेखन ही करता हूँ और 11.45 हुए हैं.. प्रतिवाद करते मैं बोला
ये लिखने का समय नहीं है सुबह लिखना अचानक वह सलाह के मूड में आ गया
अब सो जाओ..
...ये संगीत कम .. मेरा वाक्य अधूरा ही रह गया
नहीं..कहते उसने दरवाजा बंद कर दिया. संगीत डेढ़ बजे रात तक चलता रहा. मैंने कंप्यूटर बंद कर दिया... कुछ सोचने की कोशिश, सोने की भी..
कविता के लिए कोई नया शब्द नहीं मिला. मैंने उसे अँधेरे में कहीं रख दिया और आशा कि दिन के उजाले में उसे खोजूँगा.
आशा एक बोझ है जरूरी बोझ, और हमेशा उसके अनुपस्थित हो जाने का भय कहीं, समानंतर उपस्थित.
सपने में मैंने देखा
एक औरत अटकलें लगा रही है बीस बिलयन पाउंड में ग्यारह शून्य होते हैं..ग्यारह शून्य.. शून्य
©
मकान की दीवारें अचानक जैसे अपनी गहरी तंद्रा से जाग उठी यह कैसा ध्वनि तंत्र इस पड़ोसन ने आज चालू कर दिया,
मैं संग्रह के ड्राफ्ट में उलझा बैठा हूँ वह शराब पी के ऊँची आवाज में संगीत सुन रही है- कैसे कोई सुन सकता है मदहोशी में... मेरी खीज धीरे धीरे बढ़ती गई.. आखिर मुझसे रहा नहीं गया.
बाहर सड़क पर पार्क कारों और अकेली खंबो की जगमगाहट के कोई नहीं दिखता, रविवार की शाम है.
मैंने थोड़ा साहस करके दरवाजे की घंटी बजाई.. पर भीतर से संगीत के अलावा कुछ सुनाई नहीं दिया..
आखिर में लड़खड़ाती सी वह दरवाजे पर आई , मैंने उसे कहा.. जरा.. कृपया संगीत कम कर दें.... अह ओके, मदहोश स्वर में उसने कहा और दरवाजा बंद कर दिया..
मैं उम्मीद के साथ फिर डेस्क पर..
पर अब संगीत जैसे कुछ और उद्वेलित हो गया.... आखिर फिर कुछ देर तक अपने ही आत्मविवाद से गुस्सा कर मैं फिर उसके दरवाजे की ओर बढ़ गया..
इस बार एक खुरदरी सफेद दाढ़ी वाला आदमी दरवाजे पर उपस्थित हुआ
.. ये संगीत जरा कम कीजिये ना
.. नहीं मैंने कम कर दिया है वह खीज के बोला..
मेरे घर से आप आ कर सुनें कितना तेज है दीवारें कांप रही हैं, मैंने उसे आमंत्रित किया
नहीं,उसका स्वर कुछ उत्तेजित हो गया, मैंने कम करना था कर दिया.
संगीत कम करिये जरा मैं कुछ लिख रहा हूँ,
क्या समय हुआ वह बोला ये कोई लिखने समय है क्या..
मैं लेखन ही करता हूँ और 11.45 हुए हैं.. प्रतिवाद करते मैं बोला
ये लिखने का समय नहीं है सुबह लिखना अचानक वह सलाह के मूड में आ गया
अब सो जाओ..
...ये संगीत कम .. मेरा वाक्य अधूरा ही रह गया
नहीं..कहते उसने दरवाजा बंद कर दिया. संगीत डेढ़ बजे रात तक चलता रहा. मैंने कंप्यूटर बंद कर दिया... कुछ सोचने की कोशिश, सोने की भी..
कविता के लिए कोई नया शब्द नहीं मिला. मैंने उसे अँधेरे में कहीं रख दिया और आशा कि दिन के उजाले में उसे खोजूँगा.
आशा एक बोझ है जरूरी बोझ, और हमेशा उसके अनुपस्थित हो जाने का भय कहीं, समानंतर उपस्थित.
सपने में मैंने देखा
एक औरत अटकलें लगा रही है बीस बिलयन पाउंड में ग्यारह शून्य होते हैं..ग्यारह शून्य.. शून्य
©
Wednesday, August 11, 2010
Tuesday, July 20, 2010
Thursday, June 17, 2010
रस्साकशी
Sunday, May 23, 2010
Saturday, May 01, 2010
मेरे पाँवों पर उगी है दूब
तुम दूर से मुझे देखो
तो दिखता हूँ पत्थर का बुत
नजदीक आ कर देखो
तो दिखता हूँ कंकड़ों का समझौता,
मेरे पाँवों पर उगी है दूब
ताजी बस अभी ही उगी.
हवा सीटियाँ बजाती
चुभोती है अपने नाखून मेरी देह में
और खुरचती है बारिश मेरी त्वचा,
मेरी नग्नता के भीतर से गुजरते हैं
कई आकाश और छायाएँ
लंबी घड़ियों से मुक्त कोई दोपहर
दिन को हटाती कोई शाम,
मेरे भीतर एक अधपकी रोटी है
तपा रही है धूप उसे
जाने कब से
हर दिन मैं याद करता हूँ अपने बारे में
भूल जाता हूँ
इच्छाओँ के नीचे ढकी हैं मेरी आँखें
जैसे बेलों के नीचे कोई दीवार उस दीवार पर हो सकते हैं
कई नाम
किसी जगह के दिशा संकेत,
कुछ मिटते निशान
कोई चिन्हा हुआ दरवाजा
मैं इन संभावनाओं पुष्टि नहीं कर सकता फिलहाल,
नहीं बोला वर्षों से
मैंने कोई शब्द
तुम नहीं सुन पाओगे मेरी आवाज
मैं भी नहीं सुन पाता
जाने किस शरद में पत्तों के साथ मेरे कान भी गिर गए
मेरे नजदीक आओ
लगाओ अपने कान मेरी छाती पर
शायद सुन पाओ धड़कन अपनी
14.12.1993 ©
तो दिखता हूँ पत्थर का बुत
नजदीक आ कर देखो
तो दिखता हूँ कंकड़ों का समझौता,
मेरे पाँवों पर उगी है दूब
ताजी बस अभी ही उगी.
हवा सीटियाँ बजाती
चुभोती है अपने नाखून मेरी देह में
और खुरचती है बारिश मेरी त्वचा,
मेरी नग्नता के भीतर से गुजरते हैं
कई आकाश और छायाएँ
लंबी घड़ियों से मुक्त कोई दोपहर
दिन को हटाती कोई शाम,
मेरे भीतर एक अधपकी रोटी है
तपा रही है धूप उसे
जाने कब से
हर दिन मैं याद करता हूँ अपने बारे में
भूल जाता हूँ
इच्छाओँ के नीचे ढकी हैं मेरी आँखें
जैसे बेलों के नीचे कोई दीवार उस दीवार पर हो सकते हैं
कई नाम
किसी जगह के दिशा संकेत,
कुछ मिटते निशान
कोई चिन्हा हुआ दरवाजा
मैं इन संभावनाओं पुष्टि नहीं कर सकता फिलहाल,
नहीं बोला वर्षों से
मैंने कोई शब्द
तुम नहीं सुन पाओगे मेरी आवाज
मैं भी नहीं सुन पाता
जाने किस शरद में पत्तों के साथ मेरे कान भी गिर गए
मेरे नजदीक आओ
लगाओ अपने कान मेरी छाती पर
शायद सुन पाओ धड़कन अपनी
14.12.1993 ©
Monday, March 29, 2010
एक समय
कुछ दिनों में आएगा एक मौसम
इस अक्षांस में
कुछ दिनों में आएगा एक समय,
जिसे याद रखने के लिए भूलना पड़ेगा सबकुछ
क्षणभंगुर भविष्य को जीते
मैंने अतीत को नहीं देखा है अब तक
©
29.3.2009
इस अक्षांस में
कुछ दिनों में आएगा एक समय,
जिसे याद रखने के लिए भूलना पड़ेगा सबकुछ
क्षणभंगुर भविष्य को जीते
मैंने अतीत को नहीं देखा है अब तक
©
29.3.2009
Thursday, March 25, 2010
पानी का चेहरा
चिमनी में करती रही बातें
हवा कल सारी रात
जंगलों की कहानियाँ
पहाड़ों की यातना
समुंदरों का सीत्कार
सो रही और कहीं जागती दुनिया के दुस्वप्न
उसके अल्पविरामों के बीच
झरती बरसों पहले बुझ चुके अंगारों की राख,
चुपचाप
नींद में भी
सुनता रहा अपने आप को समेटता
जूझता रहा उसकी उमंग से,
मैं अँधेरे में पानी का चेहरा था
पेड़ों और दीवारों पर बहता
© मोहन राणा
"धूप के अँधेरे में" (2008) से
Monday, March 22, 2010
इस बरस
जब हम बीच में होते हैं तो किनारों पे चली जाती हैं दूरियाँ,
पास आकर भी भूल जाता हूँ निकटता की बेचैनी
किनारों पर टहलते हुए.
इस बरस कैद कर लिया
पाताल की देवी ने बसंत,
फूटते हैं बर्फीले ज्वालामुखी
कुछ और दरारें चटखती सतहों में
गिरे हुए मलबों में अपना घर खोजते लोग
धुरी पर डगमगाती धरती
खो देती कुछ क्षण,
इन प्रदेशों में पतझर की खोज में
देर से आएगा बसंत
©मो.रा.
पास आकर भी भूल जाता हूँ निकटता की बेचैनी
किनारों पर टहलते हुए.
इस बरस कैद कर लिया
पाताल की देवी ने बसंत,
फूटते हैं बर्फीले ज्वालामुखी
कुछ और दरारें चटखती सतहों में
गिरे हुए मलबों में अपना घर खोजते लोग
धुरी पर डगमगाती धरती
खो देती कुछ क्षण,
इन प्रदेशों में पतझर की खोज में
देर से आएगा बसंत
©मो.रा.
Tuesday, March 16, 2010
Translation
Does language convey anything? except translating the reality defined by the language. What is a translation? .. रुक जाती है सांस, आरंभ होता सपना
what happens, when we stop translating : the breath stops. The dream begins.
what happens, when we stop translating : the breath stops. The dream begins.
Saturday, February 20, 2010
शोक सभा में
बुदबुदाते शब्द झर कर गिर जाते अदृश्य धूल के कणों की तरह
चर्च के ठंडे फर्श पर
प्रार्थना के शब्द
शोक के शब्द
स्मृति के शब्द
अनुपस्थिति को उकेरते शब्द
विस्मृति की स्याही में
एकांत के शब्द
इस बार बसंत भी भूल गया जल्दी आना.
क्या मैं फुसफुसा दूँ कुछ तुम्हारे कानों में
(इस मृत्युलोक में जीवित देह)
इससे पहले कि तुम भूल जाओ इस जनम को
केवल हमारे लिए बुदबुदाते स्वरों के बीच
20.2.10 कविता - फोटो © मोहन राणा
चर्च के ठंडे फर्श पर
प्रार्थना के शब्द
शोक के शब्द
स्मृति के शब्द
अनुपस्थिति को उकेरते शब्द
विस्मृति की स्याही में
एकांत के शब्द
इस बार बसंत भी भूल गया जल्दी आना.
क्या मैं फुसफुसा दूँ कुछ तुम्हारे कानों में
(इस मृत्युलोक में जीवित देह)
इससे पहले कि तुम भूल जाओ इस जनम को
केवल हमारे लिए बुदबुदाते स्वरों के बीच
20.2.10 कविता - फोटो © मोहन राणा
Wednesday, February 17, 2010
कालापानी नीली लहरें
कर दो दान चुराया माल- भला करे भगवान
ना लिखे भी
ना सोचे भी
ना चीख पुकार के भी
नानाविध उपकरण और विधियाँ भी बेकार हैं
उपाय यही इस मन से मोक्ष का
अब खाली दानपात्र में बस बचा मैं ही हूँ
चुराता नहीं जिसे वहाँ से कोई ,
कभी कभी देखना भी जरूरी होता है
आइने को अपने अलावा भी
© मोहन राणा 17.2.10
ना लिखे भी
ना सोचे भी
ना चीख पुकार के भी
नानाविध उपकरण और विधियाँ भी बेकार हैं
उपाय यही इस मन से मोक्ष का
अब खाली दानपात्र में बस बचा मैं ही हूँ
चुराता नहीं जिसे वहाँ से कोई ,
कभी कभी देखना भी जरूरी होता है
आइने को अपने अलावा भी
© मोहन राणा 17.2.10
Monday, February 15, 2010
खग्रास
हमने अँधेरे को मिटाने की कोशिश
पर गुलाम हो गए चमकते बल्बों की चौंधियाहट से
कि नहीं दिखता कुछ भी उस चमकते अँधेरे में,
गढ़ा एक नया अँधेरा जिसकी रोशनी में मिटा दिया दिन को
खिड़की पे खींच कर पर्दा
तुम्हारी निराशा को अपनी कोशिश में
ठीक करते करते मैं भूल भी गया अपनी गलतियों को
अगर तुम्हें मिले वह आशा का चकमक पत्थर इस घुप्प में टटोलते,
बंद कर देना बत्ती कमरे से बाहर जाते हुए
देखना चाहता हूँ अँधेरे को तारों की रोशनी में
बंद आँखों के भीतर.
© मोहन राणा 15.2.10
पर गुलाम हो गए चमकते बल्बों की चौंधियाहट से
कि नहीं दिखता कुछ भी उस चमकते अँधेरे में,
गढ़ा एक नया अँधेरा जिसकी रोशनी में मिटा दिया दिन को
खिड़की पे खींच कर पर्दा
तुम्हारी निराशा को अपनी कोशिश में
ठीक करते करते मैं भूल भी गया अपनी गलतियों को
अगर तुम्हें मिले वह आशा का चकमक पत्थर इस घुप्प में टटोलते,
बंद कर देना बत्ती कमरे से बाहर जाते हुए
देखना चाहता हूँ अँधेरे को तारों की रोशनी में
बंद आँखों के भीतर.
© मोहन राणा 15.2.10
Friday, February 12, 2010
बावली धुन
रात थी सुबह हो गई
करवटों में भी नहीं मिली कोई जगह
गलत पतों की यात्रा यह मेरे दोस्त
रास्ता भूलना है तो साथ हो लो,
शर्त यही कि भूलना होगा अपना नाम पहले,
वैसे डर किसे नहीं लगता लोगों के भूल जाने का
याद दिलाते रहें जनम जनमों तक
उन्हें अपनी अनुपस्थिति की
कब होगी पहचान सपने और सच्चाई की
जागकर भी पता चले कैसे
जब सोया हो हर कोई आसपास
स्मृति की नींद में,
एक बावली धुन साथ है जो उतरती नहीं मन से.
© मोहन राणा
Wednesday, February 10, 2010
कविता ही फिलहाल
Monday, February 01, 2010
चाँदनी रात में खामोशी
मैं सहमत हूँ
चाँदनी रात में खामोशी से
मन में सीत्कारती चिंताओँ से
दिल में कुछ ढोती बेचैनी से
कमर में किसी बोझ की अनुभूति से
मुझ से थक चुकी नींद से
मैं सहमत हूँ
तुम्हारे भय से
दिन के अँधेरे में चलते आर्तनाद से,
असहमतियों के साथ बैठे
इस स्थिति से सहमत हूँ
थक चुका हूँ कतारें बदलते बदलते
निश्चित नहीं है जीवन में आश्चर्य हमेशा
अगर किसी को मालूम हो घड़ी में निरंकुश समय बदलना
हो चुका है अतीत जो अब याद नहीं है भविष्य की तरह,
कितनी बार बदली सूईयाँ मैंने इसकी
हर बार मैँ ही गिरता
मैं ही चूकता
मैं ही भूलता
साबुन के बुलबुले उड़ाते
© मोहन राणा
31.1.10
चाँदनी रात में खामोशी से
मन में सीत्कारती चिंताओँ से
दिल में कुछ ढोती बेचैनी से
कमर में किसी बोझ की अनुभूति से
मुझ से थक चुकी नींद से
मैं सहमत हूँ
तुम्हारे भय से
दिन के अँधेरे में चलते आर्तनाद से,
असहमतियों के साथ बैठे
इस स्थिति से सहमत हूँ
थक चुका हूँ कतारें बदलते बदलते
निश्चित नहीं है जीवन में आश्चर्य हमेशा
अगर किसी को मालूम हो घड़ी में निरंकुश समय बदलना
हो चुका है अतीत जो अब याद नहीं है भविष्य की तरह,
कितनी बार बदली सूईयाँ मैंने इसकी
हर बार मैँ ही गिरता
मैं ही चूकता
मैं ही भूलता
साबुन के बुलबुले उड़ाते
© मोहन राणा
31.1.10
Tuesday, January 26, 2010
खोए बच्चों के नाम
एक चिठ्ठी मैं लिखना चाहता हूँ खोए बच्चों के नाम
शहतूत की टहनियों से टँगे
छोटे होते जाते हैं उनके कपड़े
फैलती हैं टहनियाँ
घना होता जाता है शहतूत
और सालों में कभी एक बार मैं बूढ़े पेड़ को देखता हूँ
अपनी छाया पर झुके हुए,
तार-तार होते जाते हैं कपड़े
उनकी स्मृतियाँ हवा में मिलती हैं पानी
में घुलती हैं मौसमों में डूबती हैं
महीन होती जाती भूली हुई कविता सी,
मैं लिखना चाहता हूँ अपने बारे में पर
किसी और की कहने लगता हूँ
समकालीन पुराने हो जाते हैं,
एक दिन वे खो जाएँगे
खोए हुए बच्चों की तरह एक दिन
एक दिन खो जाएगा – कई दिनों में कहीं,
एक चिठ्ठी मैं लिखना चाहता हूँ
खोए हुए बच्चों के नाम
खोए हुए बचपन की ओर से
18.8.1995
(सुबह की डाक / कविता संग्रह से)
शहतूत की टहनियों से टँगे
छोटे होते जाते हैं उनके कपड़े
फैलती हैं टहनियाँ
घना होता जाता है शहतूत
और सालों में कभी एक बार मैं बूढ़े पेड़ को देखता हूँ
अपनी छाया पर झुके हुए,
तार-तार होते जाते हैं कपड़े
उनकी स्मृतियाँ हवा में मिलती हैं पानी
में घुलती हैं मौसमों में डूबती हैं
महीन होती जाती भूली हुई कविता सी,
मैं लिखना चाहता हूँ अपने बारे में पर
किसी और की कहने लगता हूँ
समकालीन पुराने हो जाते हैं,
एक दिन वे खो जाएँगे
खोए हुए बच्चों की तरह एक दिन
एक दिन खो जाएगा – कई दिनों में कहीं,
एक चिठ्ठी मैं लिखना चाहता हूँ
खोए हुए बच्चों के नाम
खोए हुए बचपन की ओर से
18.8.1995
(सुबह की डाक / कविता संग्रह से)
Monday, January 25, 2010
सैमसंग द्वारा प्रायोजित
यह कविता ना समझ सकती
ना लिख सकती
ना पढ़ सकती
भाषा सीख के भी
ना जान सकती
फिर
इस बंदर बाँट में
नई बिल्ली से डर किसको है
राष्ट्रीय हो अंर्तराष्ट्रीय हो बहुराष्ट्रीय हो
बहुलोकी हो
यह बहुरूपिया !
डर किसको है इस बिल्ली से
कौने बाँधे घंटी इसको,
अगल बगल
हम निकल भागते , साथ साथ
यह हिम्मत कैसी
छुपा कर मुँह रजाई में,
पहले हम उतारें घंटियाँ अपनी
बाँधे तब तो ना कोई अजातशत्रु इस बिल्ली को,
लंबी हैं ये घनघोर सर्दियाँ कोहरे की
हो गए हम अभिशप्त जीते जी
© मोहन राणा
ना लिख सकती
ना पढ़ सकती
भाषा सीख के भी
ना जान सकती
फिर
इस बंदर बाँट में
नई बिल्ली से डर किसको है
राष्ट्रीय हो अंर्तराष्ट्रीय हो बहुराष्ट्रीय हो
बहुलोकी हो
यह बहुरूपिया !
डर किसको है इस बिल्ली से
कौने बाँधे घंटी इसको,
अगल बगल
हम निकल भागते , साथ साथ
यह हिम्मत कैसी
छुपा कर मुँह रजाई में,
पहले हम उतारें घंटियाँ अपनी
बाँधे तब तो ना कोई अजातशत्रु इस बिल्ली को,
लंबी हैं ये घनघोर सर्दियाँ कोहरे की
हो गए हम अभिशप्त जीते जी
© मोहन राणा
Tuesday, January 19, 2010
बात कुछ ऐसी कि
ठीक करने में लगा हूँ दूरी मापक
काम नहीं करता,
कितनी दूर आ गया
चला गया
पिछली मुलाकात के बाद
याद नहीं यह भी
अब मैं पैदल ही नाप लेता हूँ
अनुपस्थित दूरियाँ
कहीं गए बिना
कहीं से लौटे बिना
बिता देता दोपहर
कल आज कल की
कुरसी पर बैठे खिड़की के नजदीक,
खुली हुई आँखों में भरता एक जगे हुए सपने को.
समेटता दूरियों को
दूर होकर उनसे
दूर ही होता जाता,
असीम विहंगम को बटोरने में लगा
क्या मैं बाँध सकता हूँ उसे एक पुड़िया में?
बात कुछ ऐसी कि
दैनंदिन घने जंगल में गुम धूप के कतरे को खोजता
मैं खुद ही गुम हूँ कहीं
जहाँ ना दूरी मापक काम करते हैं
ना ही दिशासूचक,
क्या मैं पकड़ सकता हूँ
तुम्हारा हाथ कि उठ जाऊँ उसके सहारे इस कुर्सी से
हम जाएँगे पैदल एक साथ कहीं
© मोहन राणा 19.1.2010
काम नहीं करता,
कितनी दूर आ गया
चला गया
पिछली मुलाकात के बाद
याद नहीं यह भी
अब मैं पैदल ही नाप लेता हूँ
अनुपस्थित दूरियाँ
कहीं गए बिना
कहीं से लौटे बिना
बिता देता दोपहर
कल आज कल की
कुरसी पर बैठे खिड़की के नजदीक,
खुली हुई आँखों में भरता एक जगे हुए सपने को.
समेटता दूरियों को
दूर होकर उनसे
दूर ही होता जाता,
असीम विहंगम को बटोरने में लगा
क्या मैं बाँध सकता हूँ उसे एक पुड़िया में?
बात कुछ ऐसी कि
दैनंदिन घने जंगल में गुम धूप के कतरे को खोजता
मैं खुद ही गुम हूँ कहीं
जहाँ ना दूरी मापक काम करते हैं
ना ही दिशासूचक,
क्या मैं पकड़ सकता हूँ
तुम्हारा हाथ कि उठ जाऊँ उसके सहारे इस कुर्सी से
हम जाएँगे पैदल एक साथ कहीं
© मोहन राणा 19.1.2010
Wednesday, January 06, 2010
और मैंने एक दिन में हाँ बोल के
....मैंने सिर्फ अपना रोल देखा :-SS
he is great fun he has great sense of humour ~X(
he is great fun he has great sense of humour ~X(
Friday, January 01, 2010
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What I Was Not
Mohan Rana's poems weave a rich tapestry of memory and nostalgia, a journeying through present living. Explore the lyrical beauty of th...
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Ret Ka Pul | Revised Second Edition | रेत का पुल संशोधित दूसरा संस्करण © 2022 Paperback Publisher ...
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चुनी हुई कविताओं का चयन यह संग्रह - मुखौटे में दो चेहरे मोहन राणा © (2022) प्रकाशक - नयन पब्लिकेशन