Tuesday, November 29, 2011
भरम अनेक
कभी सामान की कभी कमरों में अपनी नींद और सुबह के हमजीवों की,
जब लोगों से कहता हूँ, कट रही है
वे हँसी छुपाते हैरान बन गंभीर कहते हैं अरे नहीं
कैसी बात
बात जो मैं अब तक ठीक से ना कह पाया
अब भी
'कबीरा कुंआ एक है. पानी भरे अनेक' !
सबको नहीं मिलता पानी फिर भी, मिलता भरम अनेक
मुझे तो आलसी भी मेहनती लगते हैंऔर झूठ बोलने वाले भी सच्चे
प्रकृति यह व्यक्त का खेल खूब करती है, भरमाती मनुष्य को
परिंदे तारों पर टँगे आसमा भूल गया
बादलों की बहक में,रास्ता किसी समुंदर की तलाश में
मैं खिड़की खोल भी दूँ फिर भी अँधेरा झिझकता है चौखट पर
कोने किनारों में सिमटता बाहर की रोशनी से विगत ही देख पाता हूँ
धूल पर झाड़न फेरता
देता हूँ जबरन हौसला गिर कर खुद को उठाते
निपट लूंगा जिंदगी के रोड़ों से,ये टोकते नहीं याद दिलाते हैं दोस्ती का अकेलापन
अन्ना हम तुम्हारे साथ हैं
मिर्च की पिचकारी आँखों में,
और थप्पड़ किसी नेता को,बुरे वक्त की निशानी कहते हैं बुजुर्ग चश्मे को ठीक करते
इन दांतों में अब दाने नहीं चबते हवा में मुक्के भांजते
बड़ी बेतकल्लुफ़ी से पुलिसवाला पिचकारी मारता धरने की आँखों में जैसे छिड़कता हो कोई कीटनाशक दवा..
परीक्षा ले रहा धनतंत्र
पालथी छात्रों के धीरज की वे चीखते हुए आँखों को बंद नहीं रख पाते, खोल कर बंद नहीं कर पाते,
वही पिचकारी हाथ बन जाता एक कठपुतली हाथ थप्पड़ मारने के लिए,
उस उदासीन गाल पर असर नहीं होता पर छाप कहीं और पड़ती है पाँचों ऊँगलियों की, देखा मुखौटा किसका,
चेहरा अपना नाम बताते हुए
दण्डवत नमस्कारम इस धरती को, एक और दिन .
©मोहन राणा
Saturday, October 29, 2011
शरद Autumn
Thursday, October 27, 2011
विशेषण
मुद्रा बाजार में पूँजी को और शब्दों के व्यापार में
अँधेरे में छतरी खोल भाषा के छिलकों को,
यह फैलता हुआ विस्तार बढ़ा रहा है खालीपन को
सिमटता बाकी जो छूट जाता पीछे, समेट लिया जाता ऊँचे फुटपाथों में
पुराना घर कोई दोगला कस्बा भूगोल बदलता जिला पाट बदलता गाँव,
टूटी ही नदी किनारे
हरा होने की कोशिश करता प्रदूषित होता हुआ महानगर,
किसी भीड़ में कुछ पहचाने पहचान दर्ज करने
फिसलते अपने अकेलेपन के वलय में खत्म होती दूरियों में
एक दोपहर एक शाम किसी सुबह की स्मृति में
अपने नाम के साथ कोष्ठक में बंद एक विशेषण,
कहते नहीं सुना सूरज को कहाँ तक पहुँचती है उसकी रोशनी
अगर धरती न समटेती उसकी किरणें
देख पाता क्या मैं उसे, कभी नीले आकाश में
©
Thursday, October 20, 2011
प्रवासी
ले जाते आम और पीपल का गीत
ले जाते कोई ग्रीष्म कोई दोपहर
पूस का पाला अपने साथ
ले जाते एक गठरी साथ,
बाँध लेते अजवाइन का परांठा भी यात्रा के लिए
4.6.2003
Monday, October 10, 2011
इसमें झिझक कैसी
सांय सांय सिर फोड़ती खिड़की दरवाजों पर,
इस कोलहाल के वीराने मुझे अपनी सांस से भी लगता है डर
मैं उसे आशा की तरह साधे रहता हूँ अपनी मुस्कान में.
Sunday, September 04, 2011
Tuesday, August 23, 2011
आत्मक्लेष
सबके साथ नहीं होता यह
जो खुली रह जाएं आखें झुकी पलकों में,
इस तेज आंधी में नहीं दिखता
शब्दों की ढलानों पर
असभ्य हुक्मशाहों के विरूद्द कोई बोलता
न किसी के जलसे में ना किसी परचम नीचे
ना पंडाल में ना किसी सेमिनार ना किसी फोरम पोस्ट में,
मोहल्ले में चुप्पी कविता के जनपद में कवियों की अनुपस्थिति
कुछ दिन ही हुए हैं बार बार लौटते इस ख्याल में
पर ऐसे ही बीत गए हैं चौंसठ बरस जुड़ते जुड़ते
कोई फुसफुसाता है धीमे से, सच भी दगाबाज निकल आता है कभी.
सपने खुद ही लेते हैं सांस
इस बरगद की छांव में
©
Saturday, August 06, 2011
खरगोश
पर थोड़ी देर में वह भी बंद हो जाती सुनाई देना,
सुनते हैं अपनी धमनियों में रिसती पीड़ाएँ
पर थोड़ी देर में वे भी रुक जातीं रिसना
और अँधेरा मिट्टी और हम एक हो जाते
2002
© मोहन राणा
Tuesday, July 26, 2011
Friday, June 24, 2011
परसों का नाश्ता आज
जल्दी क्या !
और मैं खुद ही देता हूँ
अपनी मोचों पर किसमत का मरहम लगाते हुए
पर तारीखें जैसे पहले से तय
बस याद नहीं कि क्या हो चुका
असावधान वर्तमान में हमेशा अतीत ही उपस्थित,
हाथ बाँधे सिर झुकाए. पर मैं कभी नहीं पहचान पाता.
हरे पेड़ भी भयभीत हैं उस बादल की छाया में
जो प्रकट होता है बेआवाज़,
मुझे बताने से क्या फायदा
आप खुद सुनना नहीं चाहते अपनी जुबानी
कि हजारों फीट से मिसाइल कहीं और ही गिराई जाती है,
सुबह आराम से चाय के साथ पढ़ते हुए
आज खा रहा हूँ परसों का नाश्ता
©
Sunday, June 19, 2011
कविता पाठ / Poetry Reading
Mohan Rana and Bernard O'Donoghue
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Information Part of the Mohan Rana and Bernard O'Donoghue Chapbook Tour, in association with the Poetry Translation Centre Mohan Rana and Bernard O'Donoghue read together to celebrate the publication of Poems by Mohan Rana, translated by Bernard O'Donoghue and Lucy Rosenstein. More about the Poetry Translation Centre: http://www.poetrytranslation.org/ Please email reception@spl.org.uk to reserve your place |
Tuesday, June 07, 2011
नई किताब
Tuesday, May 24, 2011
मछली की सांस
आइने भी नहीं कर पाते पुष्टि हमारी शंकाओँ की
हर सुबह किसी रात का सपना ही होती है
गहराई सतहों के उद्वेलन में नहीं होती
पर हमारे पास नहीं मछली की सांस कि वहाँ उतर सकें
Monday, May 09, 2011
भविष्य
Thursday, May 05, 2011
रेत के पुल पर गिरगिट
दिखे तो संशय होता है खुद पर
नदी पत्थर हो चुकी
रेत के पुल पर गिरगिट
किसी परछाईं के जीवाश्म को देख चौंकता
© मोहन राणा
Friday, April 29, 2011
गिरगिट
कितने नाम बदले चलन के अनुसार रंगत भी
बोलचाल के लिए बदले रूपक बदलने के लिए तेवर
एक दो गालियाँ भी पर हर करवट बेचारगी के शब्दों से भरपूर,
यह ट्रिक हमेशा काम करती है बंधु
बिल्ली के गले में कागज की घंटी बाँध सोया हुआ हूँ सपनों में सलाहें देता,
आश्वासन के खाली लिफाफों को बाँटता
आशा का तराजू बट्टा किसी के बस्ते में डालता
बदलाव की पुकार लगाता दिशाओं को गुमराह करता
लुढ़कता वसंत की ढलानों पर मैं गिरता हुआ पतझर हूँ,
क्या मुझे याद रह पाएगा हर रंगत में हर संगत में
यह उधार का समय जो मेरी सांसो से जीता रहता है मेरा ही जीवन
रटते हुए अक्सर भूल जाता हूँ सच बोलना.
7.11.2008
© मोहन राणा
Thursday, April 07, 2011
कपड़ों से बाहर
सहमे हुए रास्तों की दिशा
मैं अपने कपड़ों से बाहर निकल जाना चाहता हूँ धूप का चश्मा लगा कर,
बंदर बाँट में बिल्लियाँ लड़ती रहती हैं
बंदर हँसता रहता है अपनी किस्मत पर
वह तो दरवेश सिफ़त है,
कचरे में पाई क्या वह सचुमच कविता ही थी
कि मैंने सुना था कुछ
उसे एक बार फिर मन में लिखते हुए,
हैडफोन डायोड और एंटेना
कानों में खामोश ध्वनि तरंगों में उपस्थित बोल पड़ी बीसवीं सदी
आशा ही है इस संशय का नाम
जिसे तमगे की तरह सीने से लगा रखा है
धरती भी नहीं चाहती यह बोझ उस पर गिरे.
© मोहन राणा
Sunday, March 27, 2011
Saturday, February 19, 2011
कुछ कविताएँ सबद में
और उन पर गिरीन्द्र की टिप्पणी
http://anubhaw.blogspot.com/2011/02/blog-post_16.html
Thursday, February 17, 2011
कविता की भाषा में
यूँ तो हमारे कदम केवल पिछले कदमों को ही दुहाराते हैं
सवाल तो कदम रास्तों को जनमते हैं या मंजिलें उनकी..
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पीली लाइन की मैट्रो फिर अचानक रूक गई
एक पल को गुल बत्ती में दम साध गई भीड़ में
हम अटकलें लगाने लगे,
दुनिया में फैलती जनक्रांतियों की आँधी हमारी राजधानी में
कब ?
नौटियाल जी कहते हैं, इंडिया वालों में दम नहीं !
© मोहन राणा
Sunday, January 30, 2011
नमस्ते
शहर के किस कोने में कहाँ
दो पैरों बराबर जमीन पर
वो भी अपनी नहीं है
दूरियाँ नहीं बिफरा मन भी नहीं
तुम्हें याद करने का कोई कारण नहीं
भूलने का एक बहाना है खराब मौसम जो
सिरदर्द की तरह
समय को खा जाता है खाये जा रहा है
फिर भी भूखा है जैसे आज भी,
या मैं खुद से पूछ रहा हूँ
समय को कच्चा खाते
मैं भूखा क्यों हूँ सिरदर्द की तरह
सोच सोचकर
लोहे के चने चबा रहा हूँ
अब मैं भूल भी गया
मैंने तुमसे पूछा क्या था
अपने ही सवाल का जवाब देते हुए,
दो पैरों बराबर जमीन पर
वो भी अपनी नहीं है
© मोहन राणा
30.1.2011
Tuesday, January 25, 2011
The Dust of Timas
The Dust of Timas
by: Sappho (c. 610-570 B.C.)
translated by Edwin Arlington Robinson
This dust was Timas; and they say
That almost on her wedding day
She found her bridal home to be
The dark house of Persephone.
And many maidens, knowing then
That she would not come back again,
Unbound their curls; and all in tears,
They cut them off with sharpened shears.
Thursday, January 13, 2011
लार्ड मैकाले का तंबू
आपको यह बात अजीब नहीं लगती
मैं कंपनी के देश में वर्नकुलर भाषा में कविता लिखता हूँ,
मतलब कागज पर नाम है देखें
मिटे हुए शब्दों में धुँधली हो चुकी आँखें
ढिबरी से रोशन गीली दोपहरों में,
कबीर कह चुके असलियत
माया महाठगनि हम जानी,
और मैं केवल अपने आप से बात कर सकता हूँ
पहले खुद को अनुसना करता हूँ
कोई नहीं संदर्भ के लिए रख लें इस बात को कहीं
आगे कभी जब दिखें लोग आँखें बंद किये
तो पार करा दीजियेगा उन्हें रास्ता कहीं कुछ लिख कर,
मैं खुद भी भूल गया था इसे कहें रख
कुछ और खोजते आज ही मुझे याद आया
मैं भाग रहा था अपने ही जवाबों के झूठ से
कहता मैं सच की तलाश में हूँ
मैंने अपने बगीचे में बाँध रखीं हैं घंटियाँ पेड़ों से
एकाएक मैं जाग उठता हूँ उनकी आवाजें रात में सुनकर
कहीं वे गुम ना हो जाएँ
मेरे वर्नकुलर शब्दों की तरह
©
Sunday, January 09, 2011
कविता वृत्त
तितली तो नहीं मैं किसी को दे सकता हूँ, उसके पंखों की जादुई उड़ान का आभास ही शब्दों से देता हूँ. ताकि पढ़ने वाले के भीतर कोये में सोई तितली उस तरंग को महसूस कर जाग उठे.
Wednesday, January 05, 2011
शून्य का दशक
मैं उन्हें पहनता बदलता रहा अपने मतलब के लिए
तुम्हें सच से बचाने के बहाने
झूठ कहता रहा किसी कान में फुसफुसा कर ,
दस और साल बीत गए
बीत ही गया शून्य का दशक
हर कोशिका में खालीपन छोड़ पर,
तुम्हारी फेसबुक पर
मैंने साध रखी है अपनी उपस्थिति में पलायन की चुप्पी
©
Monday, January 03, 2011
खड़े होने की जगह
कुछ समय पहले एक दृश्य मैंने दिसंबर की सर्द के शाम हौजखास में एक अँधेरी सड़क पर देखा, गीला कुंहासा पास के जंगल से निकल सब ओर अँधेरे में फैल रहा था.
केवल गाड़ियों के हैडलैम्प या किसी भागते ऑटो की मुंदी बत्ती में पता चलता था कि मैं सड़क पर हूँ , और पाँव चल रहे हैं. फुटपाथ जैसी कोई चीज़ नहीं थी बस घने अँधेरे के किनारे थे दोनों ओर सड़क के बीच चलता मैं जल्दी जल्दी वहाँ से आगे बढ़ रहा .. तभी एक मंद रोशनी में मैंने कुछ लोगों के एक समूह को कुछ दूर से एक घेरा लगाए देखा, मुझे अचरज हुआ कि इस अँधेरे में वहाँ वे क्यों खड़े हैं!
पास आया तो देखा लैम्प की रोशनी के इर्दगिर्द वे लोग एक खोमचे को घेरे खड़े थे, बिल्कुल स्थिर चुपचाप कुछ खाते हुए और उनके परे एक आदमी हाथ चला रहा था शायद रोटियाँ बेल रहा था और ढेकची से कुछ करछी से निकल कर किसी प्लेट पर डाल देता.. शाम का भोजन चल रहा था.
कविता अपना जनम ख़ुद तय करती है / The poem Chooses Its Own Birth
Year ago I wrote an essay 'कविता अपना जनम ख़ुद तय करती है ' (The poem Chooses Its Own Birth) for an anthology of essays "Liv...
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चुनी हुई कविताओं का चयन यह संग्रह - मुखौटे में दो चेहरे मोहन राणा © (2022) प्रकाशक - नयन पब्लिकेशन
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Ret Ka Pul | Revised Second Edition | रेत का पुल संशोधित दूसरा संस्करण © 2022 Paperback Publisher ...