Friday, December 16, 2005
एक कविता फिर से
झपकी
नंगे पेड़ों पर
उधड़ी हुई दीवारों पर
बेघर मकानों पर
खोए हुए रास्तों पर
भूखे मैदानों पर
बिसरी हुई स्मृतियों पर
बेचैन खिड़कियों पर
छुपी हुई छायाओं में बीतती दोपहर पर,
हल्का सा स्पर्श
ढांप लेता हूँ उसे हथेलियों से,
उठता है मंद होते संसार का स्वर
आँख खुलते ही
3.2.05 © मोहन राणा
Saturday, December 10, 2005
आलू बुखारा
पत्ते तो थे ही नहीं...बच गया तो कभी उसमें जामुनी रंग के फल आएँगे.
Sunday, December 04, 2005
भंवर
Friday, December 02, 2005
चश्मा
Saturday, November 26, 2005
अपवाद
Sunday, November 20, 2005
Wednesday, November 16, 2005
तुम्हारा कभी कोई नाम ना था
वे महत्वपूर्ण काम में लगे लोग हैं
मुझे शिकायत नहीं वे व्यस्त
मेरे हर सवाल पर उनका हाल
कि वे व्यस्त हैं,
रुक कर देखने भर को कि अब नहीं मैं उनके साथ चलता
पर वे ही बुदबुदाते कोई मंत्र
मैं व्यस्त हूँ
मैं व्यस्त हूँ
सदा समय के साथ
सदा समय के साथ
पर कान वाले लोग बहरे हैं,
और 20/20 आँख वाले अँधों की तरह टटोल रहे हैं दिन को .
और समय वही दोपहर के 11.22
कहीं शाम हो चुकी होगी
कहीं अभी होती होगी सुबह नयी
कहीं आने वाली होगी रात पुरानी
क्या तुम लिखती ना थी कविताएँ कभी
पूछता उससे
जैसे कुछ याद आ जाए उसे,
लिखती थी कभी, पर अब अपना नाम भी नहीं लिखती,
कौन सा नाम मैं पूछता उसकी खामोशी को
जो अब याद नहीं
कि भूलना कठिन है तुम्हें
16.11.05 © मोहन राणा
Monday, November 14, 2005
सर्दियाँ
शाम को अचानक आकाश लाल हो उठा उस लालिमा में फंसा पिघलता हुआ चाँद पूर्व दिशा में दिखने लगा. बस जैसे ऐसे ही किसी मौके की प्रतीक्षा में छुपा था वह - अँधकार.
अँधेरा छायाओं से मुक्त हो बड़ी तेजी फैलने लगा, सारा दिन अपने आपको पेड़ों से छुड़ाते कोहरे को भागने का मौका ही नहीं मिला कि अँधरे ने उसका हाथ थाम लिया
ठंड से अकड़ा कोहरा लेता ठिठुरती सांस.
Monday, November 07, 2005
माया
और एक दिन उनकी सफेदी ही बचती है
जगमगाता है बरामदा शून्यता से
फिर मैं उन्हें भीतर ले आता हूँ
वे गिरे हुए छिटके हुए कतरे जीवन के
उन्हे चुन जोड़ बनाता कोई अनुभव
जिसका कोई अर्थ नहीं बनता,
बिना कोई कारण पतझर उनमें प्रकट होता
बाग की सीमाओं से टकराता
कोई बरसता बादल,
दो किनारों को रोकता कोई पुल उसमें
आता जैसे कुछ कहने,
अक्सर इस रास्ते पर कम ही लोग दिखते हैं
यह किसी नक्शे में नहीं है
कहीं जाने के लिए नहीं यह रास्ता,
बस जैसे चलते चलते कुछ उठा कर साथ लेते ही
बन पड़ती कोई दिशा,
जैसे गिरे हुए पत्ते को उठा कर
कि उसके गिरने से जनमता कोई बीज कहीं
7.11.05 ©मोहन राणा / Photo by Drakpa
Thursday, November 03, 2005
Wednesday, November 02, 2005
विलाप
विलाप
वह किसी का हाथ
रूमाल में लिपटा,
वह खोया हुआ हाथ
उस हाथ ने कभी छुआ अपने जन्म को
और जाना अपने होने को,
उसने छुआ रोटी के टुकड़े को
प्रेम के स्पर्श को
और लिखा कुछ,
एक गर्म दिन
उसने टटोला हवा की उपस्थिति को,
बरसते हुए मानूसन को समेटा अंजलि भर
बादलों की गर्जना में हल्की सी सीत्कार समुंदर की,
उस हाथ ने कभी संभाला गिरते हुए को
खोजा खोए हुए को
टटोला अँधेरे में बत्ती को,
हाथ पकड़ा किसी का सड़क पार करते ।
मैंने तस्वीर में देखा
एक हाथ उठाए है रूमाल में लिपटे एक विक्षत हाथ को
जिसका नहीं कोई चेहरा
नहीं पहचान
कोई नाम,
आतंक से उपजे शोक में
कोई विलाप नहीं
शब्दों में मृतकों के लिए
© मोहन राणा 2.11.05
Monday, October 31, 2005
29 अक्तूबर 05
संदेश - जैसे एक पल को समय रुक सा गया - दिल्ली में विस्फोट!
आसपास का कोलाहल एकाएक खामोश हो गया उसे पढ़ते ही , एक सांस कहीं गुम हो गई.
यह क्या हो गया दीपावली के पहले?
...देर रात तक मैं पता करता रहा लोगों के हाल फोन से ईमेल से ,
नेट पर तस्वीरों में सदमा, शोक, भय और अनिश्चय, ठिठकते आंतकित दिल्ली के नागरिक
फिर पढ़ा कि ...
लोगों की शिकायत थी कि तमाम वीआईपी लोगों के लगातार अस्पताल आते रहने से घायलों और उनके परिजनों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.
अस्पताल में भर्ती घायलों के परिजनों में से एक ने बताया, "यहाँ लगातार नेताओं का आना-जाना लगा है और इसके चलते हमें बार-बार वॉर्ड से बाहर निकाल दिया जा रहा है और हम अपने घायल परिजनों से नहीं मिल पा रहे हैं. बाहर न तो बैठने की जगह है और न ही पीने को पानी."
रविवार की सुबह रेडियो चालू किया , बीबीसी पर एक औरत की आवाज खबरों में सुनाई दी ... वह कह रही थी तो कि हम इतने इतने रुपए मृतकों और घायलों के परिवारों को सहायता के लिए देंगे. बाद में पता चला वह दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित थीं.
Wednesday, October 26, 2005
निर्मल वर्मा
निर्मल जी का मंगलवार की शाम को दिल्ली में निधन हो गया. कुछ दिन पहले ही मैं उनके स्वास्थय के बारे में सोच रहा था. मुझे लंदन से आज दोपहर एक ईमेल से यह खबर मिली.
जनसत्ता के लिए मैंने 1988 में लेखकों के साथ एक वार्तालाप श्रंखला "जो लिखा जा रहा है " लिखी. उसके लिए मैं निर्मल जी से करोलबाग उनके घर मिलने गया और फिर एक छोटी सी बातचीत घर की बरसाती में की. यह रविवारी जनसत्ता में 7 अगस्त 1988 में प्रकाशित हुई थी.
दिल्ली में उनसे पिछली बार मेरी मुलाकात इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में नवंबर 2002 में हुई थी, हम दोपहर का भोजन करते हुए कुछ बातें करते रहे मैंने उन्हें अपनी किताब "सुबह की डाक " भेंट की.
अभी मैंने फिर से जनसत्ता में छपी उस बातचीत की कतरन को खोज कर पढ़ा..अखबारी कागज का पीलापन बढ़ता जा रहा है और इसकी छपाई धूमिल पड़ती जा रही है.
एक दिन सारे अक्षर गुम हो जाएँगे. बस कुछ निशान...
पतझर अपने आप को समेट रहा है इन दिनों , पिछले दिनों की लगातार बारिश ने उसके रंगों को धो दिया है, बस जहाँ तहाँ गिरे हुए
गीले पत्ते- गलते हुए.
पूर्व दिशा में आज कल शाम ढलते ही मंगल ग्रह प्रकट हो जाता है चमकता और धरती के निकट आता हुआ.
Tuesday, October 25, 2005
पहली किताब से
संजय के अनुरोध पर पहले संग्रह "जगह" से यह कविता फिर
विदा
जब हम फिर मिलेंगे
हमें फिर से
बनना पड़ेगा दोस्त
1986
जगह(1994) पृष्ठ 30
जयश्री प्रकाशन, दिल्ली
Wednesday, October 19, 2005
जाना कुछ
अपना देश बेगाना, इस बेगानगी के सफर में.
झरते सहमते पत्ते पलभर को बल खाते
जैसे लेते एक झलक फिर
उस टहनी की जहाँ पिछला बसंत आया
कांपती रोशनी जाते हुए झोंके में,
किसको मैं देखता कि रूकता कुछ पहचान कर.
19.10.05
Friday, October 14, 2005
कभी नहीं जैसे कितनी बार
चलती रहती , घिसटती रपटती पंक्चर गाड़ी- अटकती झटकती
चलती बस चलती, पहुँच कहीं दूर वहीं जैसे फिर शुरू करती
सीखती चलना पहचानती सीधे पर अचानक आए मोड़ को,
एक बार यह होना
कभी नहीं जैसे कितनी बार
©14.10.05 मोहन राणा
Saturday, October 08, 2005
भूकंप
धरती मेरे पाँवों नीचे कांप रही थी
और मैं डर से खोज रहा था
कोई जगह जहाँ
कोई खड़खड़ ना हो
दरवाजा बंद रहे शांत
और धरती ना कांपे मेरे पैरों नीचे,
मैंने पेड़ को हिलते देखा
हवा को सहमते
छायाओं को छुपते
दुस्वपन बीच एक दोपहर.
Thursday, October 06, 2005
कुछ मौसम ऐसा
Wednesday, October 05, 2005
नदी किनारे
Friday, September 30, 2005
बारिश
"The poet's condition"
You and I would be invisible
We'd live our invisible pain
And not know
The absence of joy
We'd marvel the invisibility
In which shadows disappear
Forms vanish
Falling we'd imagine flying without a sky
Only a sound
Which reaches the remaining memory
Where knowledge is not a necessity
The poet's condition
Poetrys fate
This
Together
A breath
© 2005
Translation of Mohan Rana's original Hindi poem "kavi ka haal" by Lucy Rosenstein
Many thanks to Lucy ~
For reading more translations of Mohan Rana's poems published few years ago in "Modern Poetry in translation "
please visit this web page.
Thursday, September 29, 2005
तु्म्हारा नाम
और अब पतझर धीरे धीरे जैसे कुछ लिखता समय की हथेली पर,
Tuesday, September 27, 2005
पहचान
ना उसकी अपनी जाति, भाषा
ना कोई अस्मिता का सवाल
कोई घर भी नहीं उसका वह हमेशा बेघर
दुनिया के विस्तार में
रोशनी और परछाईयों के खेल में,
जीवन और मृत्यु उसके लिए एक समान
एक सांस
किसी से भी पूछो - क्या है यह
और हर भाषा में एक ही जवाब है - हवा
अपने हाथों को कानों से लगा
मैं सुनता हूँ उसे कुछ बोलते
तुम्हारी आवाज में
©मोहन राणा mohan rana 27/9/05
Friday, September 23, 2005
Tuesday, September 20, 2005
Sunday, September 11, 2005
कौन
बदलते हुए जीवन को देखते उसे जीते हुए
मैं ठीक करता टूटी हुई चीजों को, उठा कर सीधा करता
गिरी हुई को
कतरता पौछंता झाड़ता बुहारता,
जीते हुए बदलते जीवन को देखता
छूटता गिरता टूटता गर्द होता,
और आते हुए लोग मेरे बीतते हुए दृश्य को
कहते सामान्य
सब कुछ नया साफ सुथरा
जैसे मैं देखता उसे इस पल
और बदलता तभी
छूटता मेरे हाथों से
जैसे वह कभी ना था वहाँ
कौन रुक कर पूछता मैं
अब तब नहीं जाना मैंने तुम्हें
11.9.05 ©
Wednesday, September 07, 2005
पहचान पत्र
Sunday, September 04, 2005
मचान
Friday, August 26, 2005
Wednesday, August 24, 2005
चाबी
सर्दियाँ अपने उतार पर थी और वसंत के निशान दिल्ली के कुँहासे में प्रकट होने लगे थे. मैं स्कूल की बेंच पर बैठा धूप सेंक रहा था कि मेरी नजर जमीन पर पड़े एक लिफाफे पर गई कोई मूँगफलियाँ खाकर छिलकों के साथ उसे भी वहीं फेंक गया था. यह जानने कि उस पर क्या छपा है उठाकर देखा और उसे खोल कर जब फैलाया तो उसमें कविता की किताब के दो पन्ने थे...यह मेरी पहली कविता की किताब थी. कविता ने मन में एक खिड़की खोल दी.
मैं उस आदमी की तलाश में हूँ जिसने वह ढाई सौ ग्राम मूँगफली खरीदी थी.
कभी कवि ने कविता लिखी कविता एक संग्रह में छपी किताब बिकी अनबिकी रद्दी में चली गई उसके पन्नों के लिफाफे बने, लिफाफे बिके, मूँगफली वाले से किसी ने मूँगफली खरीदी स्कूल की बेंच पर आराम से उन्हें खा चबा के छिलकों के साथ वह लिफाफा फेंक गया.
कुछ देर बाद एक हाथ उस कचरे की ओर बढ़ा, छपे अदृश्य हो गए शब्दों में फिर से जनम लिया कविता ने.
Monday, August 22, 2005
आवाज
Friday, August 19, 2005
Monday, August 01, 2005
Saturday, July 30, 2005
कुछ तस्वीरें
Thursday, July 28, 2005
Tuesday, July 19, 2005
जगह
डामर की सड़क जिस पर बारिश की बौछार के बाद निंबौरियाँ बिखरी थी और नंगे पाँव.
20.7.05 © मोहन राणा
Monday, July 18, 2005
अर्धसत्य
Sunday, July 17, 2005
लकीर
Friday, July 15, 2005
इतना भर
नहीं कहा क्या आखिरी बार,
कहाँ से शुरू करूँ बात
मालूम नहीं कौन सा शब्द
निकले इस अजनबी निकटता में
मुलाकात यह पहचान पुरानी,
जैसे धूप का कोई कतरा
अटका पेड़ की छाल में ,
आज होगी पूरी कि बस
एक आश्वासन
16.7.05 © मोहन राणा
दरवाजा
दरवाजा है हमारा
बस निकलते ही सामने है,
स्टेशन पर पहुँचते ही
बहुत दूर नहीं
15.7.05 © मोहन राणा
Thursday, July 14, 2005
गरमी गरमी
लगाती बेचैन सूखते आकाश में गोता
यह एक चलता हुआ घर
भागती हुई सड़क पर
यह एक बोलती खामोश दोपहर.
14 जुलाई 05 © मोहन राणा
सवाल
सच और भय की अटकलें लगाते
एक तितर बितर समय के टुकड़ों को बीनता
विस्मृति के झोले में
और वह बेमन देता जबाव
अपने काज में लगा
जैसे उन सवालों का कोई मतलब ना हो
जैसे अतीत अब वर्तमान ना हो
बीतते हुए भविष्य को रोकना संभव ना हो
जैसे यह जानकर भी नहीं जान पाउँगा
मैं सच को
वह समझने वाली बाती नहीं
कि समझा सके कोई सच,
आधे उत्तरों की बैसाखी के सहारे चलता इस उम्मीद में
कि आगे कोई मोड़ ना हो
कि कहीं फिर से ना पूछना पड़े
किधर जाता है यह रास्ता,
समय के एक टुकड़े को मुठ्ठी में बंदकर
यही जान पाता
कि सबकुछ
बस यह पल
हमेशा अनुपस्थित
12 जुलाई 2005 © मोहन राणा
Wednesday, July 06, 2005
अवाक
पिछले रविवार को शहर के बाहर एक नहर के किनारे टहलने चले गए, चमकती धूप में हरियाली
उनींदी , अपने ही पद्चाप अजनबी ध्वनित होने लगे कुछ देर चलने के बाद
कभी कोई बगुला कुछ सोच कर उड़ पड़ता छोड़कर बेचैनी पानी की हरित सतह पर
नीले रंग के ड्रैगनफ्लाई मंडराते यहाँ वहाँ बैठते...उँची घास पर
रास्ते का कोई छोर नहीं दिखता, गंतव्य क्या और कहाँ है यह भी नहीं मालूम
बस हम चलते चले गए- सुंदर और शांत, जहाँ पानी और रोशनी की अतरंगता
में समय अवाक ....
धूमकेतू
बदली नहीं दिशा उसकी गति उसकी
बच्चों की तरह उछले हम
बेचैन खोलते खिड़की दरवाजों को
अशांत मौसम में टटोलते अपनी स्थिरता को
होते चकित अपने ही पैरों को देख अचानक,
पर वह चलता गया चलता
फुंफकारता अंतरिक्ष के तिमिर में
बर्फानी फुंफकार
अदृश्यता के व्योम में
क्या जाना
हमने क्या जाना
कल का उत्तर
आज का प्रश्न
5.7.05
Monday, June 20, 2005
हिन्दी
उसे आती है हिन्दी पर
वो हृदयहीन है !
मुझे मालूम है
वह रक्तहीन है
हमारे ही झूठों से जीवित है
हमारी ही धड़कनों में छुपा
हमारे ही कानों से सुनता
हमारी ही आँखों से देखता
हमारे ही स्पर्श से छूता
उसे हिन्दी आती है
ना उसमें कोई व्याकरण की
ना मात्रा की गलती
जरा भी चूक नहीं
जरा भी हिचकिचाहट नहीं
20.6.05 © मोहन राणा
Tuesday, June 14, 2005
पत्थर बाबा
यह कहानी कब कहाँ और किसने शुरू की यह अपने आप में इस कहानी की तरह ही एक पहेली है,
पत्थर बाबा तुंगनाथ की बर्फीली बादलों से ढंकी चोटी के पास रहते थे, उस उँचाई पर पहुँचना आसान नहीं था ,
संकरी पथरीली पगडंडी पर बरसों से कोई जाता नहीं दिखता . सीधी चढ़ाई फिर एक छोटी सी चौरस जमीन - वहीं पर वे रहते थे,
वे दिखने में कैसे थे, कौन थे किसी को नहीं मालूम!
न वे कभी खुद उतर कर आते. वहाँ कोई रहता है यह सभी मानते थे क्योंकि हर सुबह नियमित घंटी कुछ देर तक बजने की आवाज सुनाई देती थी,
कभी कभी कोई बर्फीली ढलान पर चलता भी दिखाई देता था पर दूरी के कारण उसकी पहचान मुश्किल थी क्योंकि उँची ढलानों पर पहाड़ी बकरियाँ भी रहती थीं.
उनका नाम पत्थर बाबा यूँ पड़ा कि सीधी चढ़ाई के बाद जो भी उनकी झोपड़ी के पास पहुँचता उन्हें पत्थर मार कर बाबा भगा देते.
कई लोग पहाड़ की चढ़ाई और पत्थरों की वर्षा के डर से उधर जाते ही नहीं . बादलों और कोहरे के कारण लोग उस पहाड़ पर रास्ता भी भटक जाते ये भटके हुए लोग बाद में किसी तरह से लौट आते या लोग जाकर उन्हें तलाश लेते पर कुछ कभी नहीं मिल पाते- कभी उस ओर आवाजें सुनाई देतीं तो लोग कहते ये आवाजें मदद की पुकार हैं भटके हुए लापता लोगों की हैं .
पर फिर भी जो कुछ जिज्ञासु पत्थर बाबा के दर्शन करने की कोशिश में जाते भी वे कुछ थकान और डर से बीच रास्ते से लौट आते , कुछ साहसी जिद्दी किस्म के लोग पहुँचते भी उनकी झोंपड़ी के पास तो एक दो पत्थर खाकर लौट आते, दिलचस्प बात यह थी कि पहाड़ से उतरते ही उन्हें कुछ याद नहीं रहता कि वहाँ उन्होंने क्या देखा बस वे दिखाते पत्थरों से लगी चोट - कुछ समय बाद उनकी चोट के निशान भी अपने आप गायब हो जाते
पर इस तरह पत्थर बाबा की कहानी की पुष्टि होती रहती. वे डर और जिज्ञासा का कारण थे. जैसे सच जो भयभीत भी करता है गुस्सा भी दिलाता है पर उत्तर भी देता है.
पर कभी कभी सालों में कोई एक लौट कर नहीं आता वहाँ से, उस पर पत्थर भी गिरते पर उसे पत्थर लगते ही नहीं ... कुछ लोगों का मानना है यह ना लौटने वाले ही फिर पत्थर बाबा बन जाते हैं.
मोहन राणा , 14 जून 2005
Monday, May 30, 2005
आता हुआ अतीत
भविष्य जिसे जीते हुए भी
अभी जानना बाकी है
दरवाजे के परे जिंदगी है,
और अटकल लगी है मन में कि
बाहर या भीतर
इस तरफ या उधर
यह बंद है या खुला !
किसे है प्रतीक्षा वहाँ मेरी
किसकी है प्रतीक्षा मुझे
अभी जानना बाकी है
एक कदम आगे
एक कदम छूटता है पीछे
सच ना चाबी है ना ही ताला
30 मई 2005 © मोहन राणा
Monday, May 23, 2005
छतरी
काश छतरी साथ ले आता मैंने सुपरमार्केट से निकलते हुए सोचा, झड़ी लगी हुई थी, पर मैं रुका नहीं भीगते हुए चल पड़ा कुछ आगे जाकर एक दुकान की चौखट पर रुक गया, बस थोड़ी के लिए यह रुक जाय कार तक पहुँचने भर के लिए.. और जैसे उसने मेरी बात सुन ली वह कुछ रुक गई और मैं कुछ ही देर में कार तक पहुँच गया.
फिर वह चालू हो गई तेज हो गई, बौछारों में ओला वृष्टि भी आरंभ हो गई घर के सामने पहुँचते पहुँचते.
एक बार फिर छतरी हाथ में इस बार ओलों की बौछार को संभालती, बस पाँच कदम दरवाजे तक.
Sunday, May 22, 2005
रविवार
कुछ अजीब सी लग रही है जैसे वह कृत्रिम हो पर उसकी पुष्टि कैसे हो कोई तथ्य भी नहीं ..
20 तारीख को सालाना बाथ संगीत मेला शुरु हो गया, विक्टोरिया पार्क में हर साल की तरह भीड़ थी ,कुछ कम ,पर थी.
लोग अपने साथ छोटे शामियाने भी ले आए, दरियाँ बिछा कर खाने पीने में लगे थे पार्क के भीतर पुलिस और एम्बुलेंस की गाड़ियाँ भी एक ओर तैयार खड़ी थीं क्योंकि
बड़ी तदाद में नौजवान थे और पीने के बाद लड़ाई झगड़ा और मनमर्जी की हरकतें इधर कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं, टोनी ब्लेयर को आठ साल बाद अब जाकर होश आया है कि अंग्रेजी समाज की हालत क्या हो गई है और बिगड़ती जा रही है..
बहरहाल तो दस बजे तक बाथ फिलॉमॉनिक शास्त्रीय संगीत सुनाता रहा और फिर जिसका सबको इंतजार था.. दस मिनट की आतिशबाजी, धमाकों के साथ अँधियारा गीला आकाश रंग बिरंगे जलते फुहारों से चमक उठता, कभी तालियाँ कभी सामूहिक किलकारी भरा आश्चर्य.. और फिर एक वापसी अंधियारे कोलाहल की, वापसी में अँधरे में अपना रास्ता टटोलती लड़खड़ाती आवाजें टूटती अधूरे शब्दों में .. मोबाइल फोन पर बात करता कोई कहता "...हाँ यहाँ बहुत सारे लोग हैं.."
पुलिस की वैन में दो पुलिस वाले एक नौजवान को धकलते, आज उसकी रात थाने में ही बीतेगी, मैंने सोचा और यह भी देखा कई और भी वहाँ आसपास मँडरा रहे थे जैसे उनका भी मन हो पुलिस के साथ दो बात करने का ..
Wednesday, May 18, 2005
जो देखा भूलने से पहले
पाँच मिनट हैं आधी रात होने में, और फिर और एक नया दिन. कल शाम नेहरू केंद्र लंदन में अशोक वाजपेयी का कविता पाठ सुनने गया... पर उस पर फिर कभी शायद.
बस अभी एक ब्लोग पढ़ा http://riverbendblog.blogspot.com/ और सोचता हूँ... क्या होने वाला है... दुनिया में
Monday, May 16, 2005
दोपहर
मैसेंजर पर कहानीकार तेजिंदर शर्मा से कविता के लुप्त होते पाठकों के कारण पर बात करने लगे..
Tejinder says:
दर असल हिन्दी कविता पाठक और श्रोता दोनों से दूर हो गई है
Tejinder says:
एक कारण ये भी है
Tejinder says:
पहले लोग कविता उद्दृत किया करते थे
Tejinder says:
अब फ़िल्मी गीत करते हैं
namaste says:
पर जो पुस्तक बेच रहे हैं बेचते रहेंगे
Tejinder says:
पुस्तक बिकती है लेकिन कितनी
namaste says:
वे हमेशा हरे भरे रहेंगे
Tejinder says:
और कितने लोग पढ़ते हैं
Tejinder says:
क्या प्रतिक्रिया मिलती है
Tejinder says:
ये क्ई सवाल हैं
namaste says:
कविता क्या केवल उद्धरण के लिए लिखी जाती है
Tejinder says:
देखिये हम जो भी लिखते हैं अगर वो केवल लेखक के लिए है
Tejinder says:
तो बहुत सीमित चीज़ है
Tejinder says:
कविता के लिए संवाद ज़रूरी है
Tejinder says:
आपकी बात पढ़ने वाले तक पहुंचनी ज़रूरी है
namaste says:
पर इस तरह के सवाल भारत में कोई किसी पेंटर से तो नहीं करता
namaste says:
ना ही किसी फूहड़ फिल्म बनाने वाले से
namaste says:
मध्य वर्ग को 25-50000 रुपए की
Tejinder says:
सर लेखक अपनी रचना लिख कर प्रकाशक के पास ले जाता है, ताकि लोग उसे पढें
namaste says:
अमूर्त पेंटिंग समझ आ जाती है
Tejinder says:
क्या इसके अतिरिक्त और कोई कारण है
Tejinder says:
अमूर्त पेंटिंग बना कर पेंटर टांग देता है
namaste says:
पर 150 रूपए का कविता संग्रह नहीं
Tejinder says:
अगर किसी को पसंद आगई ठीक नहीं तो टंगी है
Tejinder says:
मैं आपसे पूछता हूं यदि आपकी कविता मुझ से संवाद नहीं करती तो मैं उसपर दस रूपये भी क्यों खर्च करूं
Tejinder says:
कविता आपने अपने लिए लिखी है
Tejinder says:
मैं क्यों खरीदूं
namaste says:
कविता मैंने लिखी पर सोचा ही नहीं कि किस के लिए
Tejinder says:
फिर यह शिकायत क्यों कि कोई खरीदता नहीं
namaste says:
क्यों कि बेचना मेरा काम नहीं है
namaste says:
उसकी मुझे कोई शिकायत नहीं है
namaste says:
यह तो प्रकाशकों की शिकायत है
Tejinder says:
देखिये प्रकाशक व्यापारी है
Tejinder says:
वोह तो यह कहेगा ही
namaste says:
मैं तो हनारे समाज की सांस्कृतिक
namaste says:
हालात पर अपनी राय व्यक्त कर रहा हूँ
Tejinder says:
उस पर पहले हम ध्यान दें कि हिन्दी कौन सी पीढ़ी पढ़ सकती है
namaste says:
इग्लैंड में कविता के प्रेमी कम ही हैं
Tejinder says:
उस पीढ़ी को आपकी कविता समझ ना अये तो वो क्या करे
Tejinder says:
मैं नहीं जानता
Tejinder says:
इंगलैण्ड की कविता स्थिति को
namaste says:
यह समझ वाली बात तो मुझे खुद समझ नहीं आती
Tejinder says:
मोहन जी
Tejinder says:
जब लेखक अपने आप से बात करता है, तो पाठक को कैसे पता चले कि उसने क्या बात कब कर ली
namaste says:
मेरे कुछ ब्लोग भी छापें
Tejinder says:
भेजियेगा
namaste says:
कविता के साथ
Tejinder says:
यह एक नई ट्राई होगी
Tejinder says:
मैं इसके लिए तैयार हूं
namaste says:
कुछ नहीं बस मौसम और ज्यादातर बारिश के बारे में
namaste says:
http://wordwheel.blogspot.com/
Tejinder says:
ब्लॉग छापना एक नई परंपरा बनेगा
namaste says:
namaste says:
इरादा तो हमारा ऐसा ही है
Tejinder says:
अच्छा इरादा है
namaste says:
Tejinder says:
सर जी कल का प्रोग्राम कितने बजे है
namaste says:
देखिए आपने मुजे चुनौती दी है आज
namaste says:
कि नयी पीढ़ी कविता के नाम पर पैदल है
Tejinder says:
न भाई कोई चुनौती नहीं
namaste says:
उसे कुछ समझ नहीं
Tejinder says:
मैं यह नहीं कहता
namaste says:
कविता की
Tejinder says:
मैं यह कहता हूं कि नई पीढ़ी हिन्दी के मामले में पैदल है
Tejinder says:
उस पर कविता
namaste says:
अब लगता है उसमें जागृति लाने का समय आ गया
Tejinder says:
करेला और नीम चढ़ा
namaste says:
वे संवेदनशील हैं
namaste says:
पर कोई उन्हें इशारा कर दे
Tejinder says:
हो सकता है
namaste says:
पर देखिए कवियों की संगत खतरनाक होती है
Tejinder says:
सर जी दोनो बेटे आ गये
Tejinder says:
उनके लिए नाश्ता बनाना है
Tejinder says:
सर जी कल का प्रोग्राम कितने बजे है
namaste says:
अच्छा है आप कहानी लिखते हैं
Tejinder says:
होहोहोह
namaste says:
कविता तो जोगियों का रास्ता है
Tejinder says:
जी
namaste says:
नमस्ते कल मिलेंगे
सोमवार
शनिवार को माइकेल पेलिन ने शहर में हॉलबॉर्न संग्रहालय में एक नई इमारत का उदघाटन किया, हमें एक निमंत्रण आया तो मैं भी सपरिवार चला गया, मौसम अच्छा था एक तस्वीर भी माइकेल पेलिन के साथ हो गई उसने कहा
... ha a north pole smile ! (उसकी एक किताब का नाम है Pole to Pole ,1992) यूँ तो वह अभिनेता (मोंटी पाइथन ) के रूप में जाना जाता है पर इधर हाल के बरसों में बीबीसी ने उसे यायावर भी बना दिया!
अभी फिर कुछ धूप है, थोड़ी हवा भी, पेड़ कुछ सुस्ती के साथ हरियाली को झूला दे रहे हैं, सोमवार जो है आज !
16.5.05
What I Was Not
Mohan Rana's poems weave a rich tapestry of memory and nostalgia, a journeying through present living. Explore the lyrical beauty of th...
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Ret Ka Pul | Revised Second Edition | रेत का पुल संशोधित दूसरा संस्करण © 2022 Paperback Publisher ...
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चुनी हुई कविताओं का चयन यह संग्रह - मुखौटे में दो चेहरे मोहन राणा © (2022) प्रकाशक - नयन पब्लिकेशन